मेन्थॉल मिन्ट की उत्पादन तकनीक Publish Date : 16/10/2023
मेन्थॉल मिन्ट की उत्पादन तकनीक
डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी
‘‘मेन्थॉल मिन्ट यानी कि जापानी पुदीना की खेती सामान्यतौर पर इसमें मौजूद सुगंधित तेल की प्राप्ति के लिए ही की जाती है। वर्तमान समय में भारत के समेत विश्व के कई देशों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर की जा रही है क्योंकि इसका तेल बहुपयोगी होता है। इसके तेल में एंटीमाइक्रोबियल, एंटीवायरल तथा एटीट्यूमर गुण उपलब्ध होने के साथ-साथ एटीएलर्जिक गुण भी बखूबी पाये जाते हैं, जो कि अन्ततः मानव स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्व होते हैं और यही कारण है कि इसकी मांग विदेशों में भी लगातार बढ़ रही है। इस कारण भारत के किसान जायद के मौसम में मेन्थॉल का उत्पादन कर अच्छा आर्थिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। मेन्थॉल के तेल का उपयोग माउथवॉश, टूथापेस्ट, च्यूइंगम, कफ सीरप, खाँसी की दवाओं और सौन्दर्य प्रसाधन की सामग्रियों आदि में प्रयोग होने वाले तथा इससे शीतल तेल, मेन्थॉल क्रिस्टल, पेनबाम, पान मसाला और टेल्कम पाउडर इत्यादि में इसका बहुत बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है।’’
वैश्विक स्तर पर भारत, पुदीना का सबसे बड़ा निर्यातक देश है। भारत, विश्व में मेन्थॉल मिन्ट का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश भी बन गया है। मेन्थॉल की खेती में उन्नतः कृषि विधियों को अपनाना बहुत ही आवश्यक होता है क्योंकि ऐसा करने से देश में मेन्थॉल के तेल के उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
मेन्थॉल मिन्ट की उन्नत किस्में- सिम-उन्नति, सिम-क्रॉन्ति सिम-सरयू तथा कोसी आदि मेन्थॉल मिन्ट की उन्नत किस्में हैं। इन प्रजातियों का उपयोग करने से किसान भाई मेन्थॉल तेल का अधिकाधिक उत्पादन कर सकते हैं।
मेन्थॉल मिन्ट के उत्पादन के लिए उपयुक्त भूमि एवं जलवायु- पुदीने की खेती समशीतोष्ण (गर्म) जलवायु में आसानी से की जा सकती है। इसके लिए समुचित जल निकास, पर्याप्त जैविक पदार्थ (ऑर्गेनिक कार्बन) तथा सामान्य (7 से 8.5) पी. एच. वाली भूमि की आवश्यकता होती है।
प्रवर्धन एवं पौध सामग्री
मेन्थॉल मिन्ट का प्रवर्धन भूस्तारी यानी भूमिगत संकर के माध्यम से किया जाता है। मेन्था की सभी प्रजातियों की सीधी बुआई करने में 4-5 क्वि. तथा मेन्थॉल मिन्ट की खेती रोपण विधि द्वारा करने में 80-100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टर सकर्स की आवश्यकता होती है। मेन्था की बुआई का उपयुक्त समय 15 जनवरी से 15 फरवरी होता है। हालांकि, कुछ क्षेत्रों में इसकी रोपाई मार्च-अप्रैल और गेहूं काटने के बाद भी की जाती है। हालांकि इसके पौधों को फरवरी में ही तैयार कर लिया जाता है।
भूमि की तैयारी एवं पौध रोपण से पहले खेत की 2-3 बार गहरी जुताई कर लेनी चाहिए। अंतिम जुताई के बाद पटेला चलाकर मिट्टी भुरभुरी कर लेना चाहिए। जैव उर्वरक के रूप में माइकोराइजा उपलब्ध हो तो वह भी खेत में अंतिम जुलाई के समय बिखेरा जा सकता है। सभी प्रजातियों के सकर्स की बुआई कूड़ों में 60 से.मी. को दूरी पर 2.5-5.0 सें.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। यदि रोपण विधि से खेती करनी हो तो 30-40 दिनों की पौध की रोपाई 45x15 से.मी. की दूरी पर मार्च के दूसरे सप्ताह से अप्रैल के पहले सप्ताह तक की जाती है।
मिन्ट की खेती में खाद एवं उर्वरक- शाकीय फसल होने के कारण मेन्था की बढ़वार के लिए को प्रचुर मात्रा की आवश्यकता होती है। दो कटाईयों के लिए क्रमशः 150:60:40 किग्रा. नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश तत्व के रूप में देना लाभकारी रहता है, जबकि एक कटाई के लिए 80:40:40 किग्रा. नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश पर्याप्त रहता है। नाइट्रोजन की एक तिहाई मात्रा तथा फॉस्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय तथा नाइट्रोजन की दूसरी तिहाई मात्रा बुआई या रोपण 80 दिनों के बाद तथा अंतिम एक तिहाई भाग इसकी दूसरी कटाई के समय खेत में डालना अच्छा रहता हैं।
सिंचाई:- मेन्था की अच्छी उपज के लिए सिंचाई का विशेष महत्व है। शाकीय फसल होने के कारण मेन्था को पानी की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। प्रारम्भ में सिंचाई 10-15 दिनों के अन्तराल पर करनी चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि खेत में पानी का जमाव न होने पाएं, अन्यथा पौधों की जड़ों में वायु संचार कम होने के कारण पौधों का विकास अवरूद्ध हो सकता है और कटाई से 8-10 दिनों पूर्व सिंचाई करनी बंद कर देनी चाहिए।
मेन्थॅल की फसल में खरपतवार नियंत्रण- इस फसल के विकास में निराई और गुड़ाई का सीधा तथा विशेष प्रभाव रहता है। खरपतवार का उचित प्रबंधन न होने से इसके तेल के उत्पादन में 60-80 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। अतः मेन्था की फसल की निराई-गुड़ाई विशेषकर बुआई से 30 से 75 दिनों के बीच की अवस्था में और दूसरी कटाई में 15 से 45 दिनों की अवस्था में खरपतवार रहित करना आवश्यक होता है। पहली निराई करने के 25 से 30 दिनों बाद दो से तीन निराइयाँ करना ही इस फसल के लिए पर्याप्त होता है।
उचित फसल चक्र- पारम्परिक अथवा व्यावसायिक फसलों के साथ-साथ मेन्था की खेती के माध्यम से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए निम्न फसलों का समन्यनन किया जा सकता है-
1. अगेती धान-सरसों-मेन्था
2. मक्का-आलू-मेन्था
3. अगेती धान-आलू-मेन्था
4. अरहर मेन्था
मेन्था की कटाईः- जब मेन्था की ऊपर की पत्तियों छोटी तथा नीचे की पत्तियों पीली पड़ने लगे तो जमीन की सतह से मेन्था की कटाई करनी चाहिए। पौधों की कटाई जमीन से 5 सें.मी. की ऊँचाई पर करना अच्छा माना जाता है। कटाई के पश्चात फसल को छाया में 2 दिन तक सुखा लेना चाहिए। इस तरीके से करीब 5 प्रतिशत तेल का नुकसान होने से रोका जा सकता है। शाक को छाया में सुखाने के बाद ही इसका आसवन करना चाहिए।
तेल की उपज- दो कटाई करने के बाद मेन्थॉल मिन्ट से 200 किग्रा. प्रति है. तेल की प्राप्ति हो जाती है। एक कटाई करने के बाद 100-125 किग्रा./है. तेल प्राप्त जा सकता है।
शुद्ध लाभ- मेन्थॉल मिन्ट की दो कटाई करने में लगभग रु. 50,000/ है. का खर्च आता है, इसे बेचकर करीब 2 लाख रुपये की कुल आमदनी होती है और 1.5 लाख रुपये का शुद्ध लाभ प्राप्त होता है। यदि इन नवीन कृषि तकनीकों को अपनाकर मेन्था की खेती की जाती है तो यह मात्र एक कृषि व्यवसाय ही न रहकर विदेशी मुद्रा अर्जन तथा छोटे और मंझोले किसानों की आय एवं ग्रामीण रोजगार का एक प्रमुख साधन भी बन सकता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।