
वैज्ञानिक विधि से करें ब्राह्मी की खेती Publish Date : 12/06/2025
वैज्ञानिक विधि से करें ब्राह्मी की खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं अन्य
ब्राह्मी एक वर्षीय अत्यन्त महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है, जिसका उपयोग आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्वति में एक लम्बे से किया जाता रहा है। ब्राझी, भारत में प्राचीन काल से प्रयुक्त की जाने वाली उन जड़ी-बूटियों में से एक है, जिसे प्रमुख दिव्य औषधियों माना जाता है।
प्राचीन ग्रंथों, जैसे अथर्ववेद, चरक संहिता एवं आयुर्वेदिक मेटेरिया मेडिका में यह पौधा अधिकतर नदियों और तालाबों के आस-पास अथवा नमी वाले स्थानों में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है। भारत के अलावा श्रीलंका और सिंगापुर के कुछ क्षेत्र में ब्राह्मी का पौधा प्राकृतिक रूप से पाया जाता है।
ब्राह्मी का वानस्पतिक परिचय
ब्राह्मी (जलनीम) मुख्यतया एक औषधीय पौधा है। ब्राह्मी सीलन व दलदली युक्त स्थानों में प्राकृतिक रूप से उगा हुआ पाया जाता है। यह एक विसपी अथवा रेंगने वाला मांसल, पतियों एवं कांड वाला पौधा होता है, जिसकी जड़े एवं पत्तियां इसकी गांठों से निकलती है। इसकी गांठों से इतनी अधिक शाखाएं एवं जड़े विकसित होती हैं कि उनसे भूमि पर एक पताई जैसी स्थिति बन जाती है।
इसकी पत्तियां 6.25 मिमी से 20 सेमी लम्बी और 2.5 मिमी से 10 मिमी तक चौडी, विनाल कुठिताम सरल तट वाली और काली बिन्दुकित होती है। इसके फूल सफेद अथवा हल्के नीले रंग और आकार में लम्बे होते हैं, जो छोटे-छोटे और पतले पत्र कोणोद्भुत एकक वृती पर धारण किए रहते है, जो अन्ततः भूरे रंग के फलों में परिवर्तित हो जाते है. जिनमें 02-03 मिमी आकार के अनेक चपटे लम्बे गोल बीज तैयार होते हैं जिनका तल सूक्ष्म रेखांकित होता है।
रासायनिक संघटन
ब्राह्मी में विभिन्न प्रकार के यौगिक पाए जाते हैं जिनमें बैंकोसाइड (0.5-26 प्रतिशत), विटामिन ए और बी व सपीनिन समूह, बैंकोसिन् बैंकोजिनिन एएए आदि इसके प्रमुख यौगिक होते हैं। इनके अतिरिका ब्राह्मीन, हरपैस्टिन और तीन अन्य क्षारोद बी आकसैलेट, बी, आक्जैलेट और बी, क्लोरोप्लास्टिनेट डी मैनीताल, बटुलिक एसिड भी पाए जाते है।
ब्राह्मी के औषधीय उपयोग
औषधीय उपयोग में इसके प्रधान रस एवं मूल पूर्ण का उपयोग किया जाता है। ब्राह्मी एक मध्य औषधि अर्थात मनुष्य में सामान्य बुद्धि का विकास करती है। इसके सामान्य उपयोगों का उल्लेख नीचे किया गया है-
बुद्धि एवं स्मरण शक्तिः ब्राह्मी के पौधे का 10 मिली से 20 मिली एक ताजा रस सुबह-शाम 4-6 माह तक नियमित रूप से सेवन करने से बुद्धि एवं स्मरण शाका में उल्लेखनीय वृद्धि होती है। सूखे पौधे का एक में दो ग्राम चूर्ण शहद के साथ सुबह-शाम 4-6 माह तक नियमित रूप से सेन करने से व्यक्ति की बुद्धि एवं स्मरणशक्ति में अच्छा सुधार होता है।
संधिवात (जोड़ों का दर्द अथवा गठिया): ब्राह्मी के ताजे पत्तों का रस निकाल कर इसे गर्म पैराफिन के साथ मिलाकर प्रभावित स्थान पर लगाने से काफी आराम मिलता है। ब्राह्मी के ताजा पत्तों का रस निकालकर उसमें पिघली हुई पैट्रोलिय जैली के साथ मिलाकर प्रभावित स्थान पर लगाएं। जब यह सूखकर ठोस रूप में परिवर्तित हो जाए तो उसे पुनः पिघलाकर और गर्म करक प्रभावित स्थान पर लगाए। इससे तंत्रिकाशूल (न्यूरेलिया), संधिवात, सूजन आदि में काफी लाभ प्राप्त होता है।
बच्चों की खाँसी: ब्राह्मी के पौधे को उबालकर उसकी पुल्टिस बनाकर 1/2 घंटे तक छाती पर बांधने से बच्चे की खाँसी में लाभ होता है।
चिन्ता अथवा व्यग्रता निवारण हेतुः ब्राह्मी का सेवन करने से चिता अथवा व्यग्रता की स्थिति दूर होती है। अतः यह एक उपशामक के रूप में प्रयुक्त की जाती है।
उपरोक्त रोगों के अलावा इसका उपयोग स्वांस रोग, कब्ज, बुखार, मिर्गी के दौरे, उन्माद (पागलपन), मधुमेह, सर्पदश, पेशाब में जलन, दिमागी कमजोरी, गर्भधारण में कठिनाई आदि के उपचार के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है।
ब्राह्मी के औषधीय उपयोग में निरन्तर वृद्धि हो रही है जिसके कारण इसकी मांग में भी वृद्धि हो रही है। अत इसका कृषिकरण करके कृषक बन्धु लाभान्वित हो सकते है। अतः इसके कृषिकरण की विधि का उल्लेख नीचे किया गया है-
जलवायुः ब्राह्मी के सफल उत्पादन हेतु शुष्क-जलवायु की आवश्यकता होती है, क्योंकि शुष्क जलवायु में ब्राह्मी की वृद्धि तीव्र गति से होती है। जिन क्षेत्रों का तापमान 33-40 डिग्री सेल्सियस के बीच हो और सापेक्षित आर्द्रता 60-65 प्रतिशत हो वहां पर इसकी खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। जहां सिंचाई की उचित व्यवस्था न हो। वैसे इसे नदियों, तालाबों, नहरों और तालों के किनारों वाली सीलन वाली एवं दलदली भूमि में सुगमता से उगाया जा सकता है। अधिक अस्त्रीय मृदाएं ब्राह्मी के उत्पादन हेतु अच्छी मानी गई है, क्योंकि इन मृदाओं में इसकी बढ़वार विकास एवं उत्पादन अधिक प्राप्त होता है।
केन्द्रीय औषधीय एवं सगंधीय पौधा संस्थान (सीमेप) लखनऊ, उत्तर प्रदेश द्वारा ब्राह्मी की उन्नत किस्मों का विकास किया गया है। जिनकी विशेषताओं का उल्लेख नीच किया गया है-
सुबोधकः ब्राह्मी की इस किस्म को असोम से लेकर स्थानीय जलवायु के अनुसार तैयार किया गया है। इस किस्म से प्रति एकड़ ताजा एवं शुष्का क्रमशः 79 किंटल और 18.8 क्विंटल मिल जाती है। इसमें कोलाइड ए 16 प्रतिशत तक मिल जाता है।
प्रज्ञा शक्तिः ब्राह्मी की इस किस्म को ओडीशा से लेकर स्थानीय जलवायु के अनुसार तैयार किया गया है। इस किस्म से प्रति एकड ताजा एवं किंवटल और 20 किंवटल मिल जाती है। इसमें बैंकोसाइन ए 15 प्रतिशत मिलता है।
खेती की तैयारीः
सर्वप्रथम खेत में 15 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से मिलाएं। फिर मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करें। इसके उपरांत दो-बार देशी हल या कल्टीवेटर से जुताई करें। यदि को अम्लीय मृदा में ब्राह्मी को उगाया जा रहा है तो उसमें 50 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से मिलाएं।
जिस दिन ब्राह्मी की रोपाई करनी हो उसके पूर्व खेत में खुला पानी छोड़ देना चाहिए ताकि भूमि भली-भांति गीली हो जाएं और पौधों का रोपण अच्छी तरह से किया जा सके।
रोपण करने के लिए इसके सम्पूर्ण पौधे को छोटे-छोटे टुकड़ों (4-5 सेमी) में काट लिया जाता है। प्रत्येक कलम में कुछ पत्ते, जड़े और स्वस्थ हरी होनी उपलब्ध होनी चाहिए।
कलमों का रोपण
ब्राह्मी की कलमों को खेत में रोपित करना महत्वपूर्ण कार्य है। अतः कलमों का रोपण सही समय और उचित दूरी पर करना बाहिए। ब्राह्मी की कलमों को खेत में रोपने का उपयुक्त समय मार्च से जून तक होता है। अतः कृषकों की बारिश की अवधि के दौरान कलामों को अवश्य रोप देना चाहिए।
खेत को भली-भांति तैयार करने एवं स्वस्थ कलमे प्राप्त करने के उपरान्त इन कलमों को उचित दूरी पर रोप देना चाहिए। जहां तक इसकी दूरी का प्रश्न है तो शुष्क श्लाका सम्बंध में काफी संत है। सीमेप लखनऊ द्वारा इनसे 400 सेमी की दूरी की सिफारिश की जाती है, जबकि यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस बगलूरु द्वारा इसकी 30 सेमी की सिफारिश की जाती है। अतः उत्तर भारत के मैदान क्षेत्रों में 40-40 सेमी की दूरी पर रोपाई करनी चाहिए।
सिंचाईः
ब्राह्मी के सफल उत्पादन हेतु सिंचाई की सुनिश्चित या नितांत आवश्यक है। चूंकि बाह्मी सीलन और दलदली मृदाओं में उगाई जाने वाली एक फसल है। अतः रोपाई के तुरन्त बाद सिचाई करनी चाहिए। उसके उपरान्त प्रति सप्ताह सिंचाई करनी चाहिए। मानसून के दौरान यदि समय पर सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है लंकिन यदि काफी लम्बी अवधि तक वर्षा न हो तो आवश्यकतानुसार सिंचाई करते रहना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण: खरपतवार नियंत्रण ब्राह्मी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो ब्राह्मी की की बढ़वार, विकास एवं उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालते है। वैसे ब्राह्मी की फसल को रोपने के 15-20 दिनों तक की खरपतवार नियंत्रण की आवशयकता होती है जिसके लिए हाथ से निराई-गुढ़ाई करनी चाहिए।
ब्राह्मी की खेती
रोग नियंत्रणः आमतौर पर ब्राह्मी की फसल पर आमतौर पर कोई रोग नहीं लगता है। इसलिए कोई रोग नियंत्रण उपाय अपनाने की आवश्यकता नहीं होती है।
कीट नियंत्रणः ब्राह्मी की फसल को मुख्यतया दो कीट विशेष रूप से क्षति पहुंचाते है यह कीट हैं- टिहवा और तम्बाकू की सूंडी। यह दोनों ही कीट बाह्मी की पतियों को खा जाते हैं, जिसके कारण उपज में मारी कमी हो जाती है। इन दोनों कीटों का प्रकोप गर्मियों में अधिक होता है।
नियंत्रणः इन दोनों कीटों के नियंत्रण हेतु नीम अधारित कीटनाशक कर प्रयोग करना चाहिए। नीम आधारित अचूक नामक कीटनाशक अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है, क्योंकि इसके शिकार से सुडियों का नियंत्रण शीघ्र एवं सुगमता से हो जाता है। इसके लिए 1000 मिली, अचूक को 50 लिटर पानी में घोलकर कीटों का प्रकोप होने पर छिड़काव करें।
फसल की कटाई की रोपण के 4-5 माह उपरान्त जब पौधों में फूल बनने शुरू हो जाए तो फसल को काट लिया जाना चाहिए। इसके लिए ऊपर से पौधों को काट लिया जाता है और नीचे कर 4-5 भाग छोड़ दिया जाता है। चूंकि इसे शाखाएं विकसित हो जाती है जिन्हें पुनः जून माह में काट लिया जाता है। ऐसे बाहों की फसल की कटाई का सर्वाधिक उपयुक्त समय सितम्बर का महीना होता है, क्योंकि इस समय सर्वाधिक उत्पादन मिलता है और फसल कोए की मात्रा भी सर्वाधिक होती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।