फसलों में जल प्रबंधन प्रौद्योगिकी      Publish Date : 27/05/2025

                    फसलों में जल प्रबंधन प्रौद्योगिकी

                                                                                                                                      प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु  

जल-प्रबंधन कृषि कार्यों हेतु पानी के नियोजित उपयोग करने की एक महत्वपूर्ण कला है। इसके अन्तर्गत सिंचाई (पौधों को प्राप्य जल की पूर्ति हेतु पानी देना) तथा जल-निकास (अतिरिक्त पानी को खेत से बाहर निकालना) आदि सम्मिलित किये जाते हैं। हम इस तथ्य से भली प्रकार परिचित हैं कि भूमि-जल तथा पौधों में गहरा सम्बन्ध होता है। पौधों की वृद्धि के लिए एक निश्चित मात्रा में नमी की आवश्यकता होती है।

पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक जल की आपूर्ति जब प्राकृतिक संसाधनों द्वारा नहीं हो पाती है, तो पौधों की जल पूर्ति कृत्रिम रूप से करना पड़ती है, जिसे हम सिंचाई कहते हैं। सिंचाई के प्रबंधन के लिए यह आवश्यक है कि फसल को सही समय पर सही मात्रा में एवं सही तरीके से जल प्रबंध किया जाये।

रबी फसलों में सम्पूर्ण जल-प्रबंध सिंचाई द्वारा किया जाता है, वहीं खरीफ फसलों में पानी की अधिकतम मात्रा वर्षा जल से ही पूरी कर ली जाती है। कभी-कभी सूखा पड़ जाने की स्थिति में कृत्रिम जल प्रबंधन यानी कि सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। पौधों के जीवन काल में अधिक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है।

जल पौधे के अंकुरण, वानस्पतिक वृद्धि, नाइट्रोजन मेटाबोलिज्म, श्वसन प्रकाश संश्लेषण, मृदा में खाद्य तत्वों का अवशोषण तथा खाद्य तत्वों का परिवहन, संश्लेषित पदार्थों के पौधे के विभिन्न अंगों में वितरण उचित तापक्रम बनाये रखने तथा परिपक्वता आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष माध्यम है।

सिंचाई के मूल सिद्धान्तः-

1. सिंचाई के समय ध्यान देना चाहिए कि पानी की एक निश्चित मात्रा, अधिक से अधिक क्षेत्र की सिंचाई की जा सके तथा सिंचाई क्षमता अधिक हो।

2. धान के अतिरिक्त अन्य फसलों में क्षेत्र क्षमता के आस-पास भूमि में नमी का स्तर बनाये रखना चाहिए तथा मृदा उपलब्ध जल का 60 प्रतिशत भाग नष्ट हो जाने पर सिंचाई कर देनी चाहिए।

3. धान के अतिरिक्त अन्य फसलों में एक घंटे से अधिक पानी नहीं रूकना चाहिए। इससे अनेक फसलों पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

4. सिंचाई के पूर्व खेत को समतल करके उचित रूप में क्यारियाँ, नाली व मेड़ इत्यादि बना लेनी चाहिए।

5. सिंचाई प्रक्रिया में मृदा नमी स्तर, सम्पूर्ण उपलब्ध नमी परिसर में परिभ्रमित करना चाहिए। इससे मृदा में वायु संचार, पोषक तत्वों की उपलब्धता, लाभदायक जीवाणुओं की क्रियाशीलता, जड़ों की वृद्धि एवं वितरण तथा पौधे के भूमिगत ऊतकों की वृद्धि में सहायता मिलती है।

6. खेत की तैयारी, हानिकारक लवों को निकालने, रोपाई करने तथा पौधशाला निर्माण आदि विशिष्ट उद्देश्यों हेतु उचित मात्रा में फसल में पानी लगाना चाहिए।

7. मृदा में नमी की व्यवस्था करने के साथ ही उचित मात्रा में पानी के साथ सिंचाई करने का कार्यक्रम बनाना चाहिए।

सिंचाई जल प्रयोगः प्रति इकाई जल से अधिकतम पैदावार प्राप्त करने के उद्देश्य से सिंचाई करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है।

1. सिंचाई कब की जाए।

2. सिंचाई कैसे की जाए, सिंचाई जल किस मात्रा में प्रयोग किया जाए, सिंचाई किस प्रकार के जल से की जाए।

सिंचाई कब की जायेः व्यवहारिक दृष्टि से सिंचाई करने के समय का ज्ञान निम्नलिखित विधिर्या को अपनाकर किया जा सकता हैः-

A. पौधे के बाह्य दशा को देखकर।

B. मृदा की दशा एवं बाहा गुणों को देखकर।

C. भूमि में प्राप्त जल की मात्रा एवं आर्द्रता प्रतिबल के आधार पर।

D. जलवायु सम्बन्धी आंकड़ों के आधार पर सिंचाई का निर्धारण करना।

E. पौधों की वृद्धि की क्रान्तिक अवस्था के आधार पर।

F. सूचक और पौधों की सहायता।

G. पौधों की पत्तियों की नमी के अंश के आधार पर। 

B. सिंचाई कैसे की जाएः सिंचाई की सबसे उपयुक्त विधि वह होती है जिसमें जल का समान वितरण होने के साथ ही पानी का कम नुकसान हो तथा कम से कम पानी से अधिक क्षेत्र सींचा जा सके।

C. सिंचाई कितनी की जाएः सिंचाई जल के समुचित उपयोग के लिए यह आवश्यक है कि सदैव पानी की वांछनीय मात्रा का ही प्रयोग किया जाए। आवश्यकता से कम पानी जहां फसल की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है, वहीं अधिक पानी का उपवाह/अपसरण द्वारा क्षति होने के साथ ही फसलों की वृद्धि पर भी हानिकारक असर पड़ता है।

फसल के लिए प्रयुक्त सिंचाई जल की सम्पूर्ण मात्रा (सिंचाई संख्या प्रति सिंचाई प्रयुक्त जल की मात्रा) को जल डेल्टा के नाम से पुकारते हैं। पौधों की वृद्धि पर सिंचाई की संख्या और जल डेल्टा का विशेष प्रभाव पड़ता है। ऐसा पाया गया है कि पानी की एक मात्रा का प्रयोग करते हुये थोड़ी मात्रा से कई बार सिंचाई करना, अधिक पानी से एक दो बार सिंचाई करने की अपेक्षा अधिक लाभदायक होता है।

प्रायः सिंचाई करते समय शत-प्रतिशत जल उपयोग नहीं हो पाता, अतएव खेत में आवश्यकता से अधिक पानी देना पड़ता है। इसे समग्र जल के नाम से पुकारते हैं। इसे निम्न सूत्र से निकालते हैं-

सिंचाई की बारम्बारताः दो सिंचाईयों के बीच अन्तगल अवधि को सिंचाई को बारम्बारता के नाम से पुकारते हैं।

सिंचाई की अवधिः विभिन्न फसलों की सिंचाई करते समय यह आवश्यक होता है, कि किसी फसल विशेष की सिंचाई निश्चित अवधि में पूर्ण कर लें, क्योंकि इससे विलम्ब होने पर उपज में भारी कमी की संभावना रहती है। किसी खेत में किसी फसल की अधिकतम उपभौगिक उपयोग दर के एक सिंचाई में जितना समय लगता है, उसे सिंचाई की अवधि के नाम से पुकारते हैं। आम बोलचाल में किसी खेत की एक बार जितने दिनों में सिंचाई की जाती है. उसे सिंचाई की अवधि के नाम से पुकारते हैं।

D. सिंचाई जल के गुणः प्रायः सभी प्रकार के सिंचाई जल में घुलनशील पदार्थों की कुछ न कुछ मात्रा अवश्य रहती है। जल में घुले पदार्थों की सान्द्रता सिंचाई जल के गुण को निर्धारित करती है। कुछ फसलें एवं भूमियाँ जल में घुले नमक एवं पदार्थों के प्रभाव को सहन कर लेती है, जबकि दूसरी फसलों पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ता है। सिंचाई जल के गुणों पर निम्न कारकों का प्रभाव पड़ता है।

1. सिंचाई जल में घुले लवणों की सांदताः- 2250 माइक्रो मोड्स से अधिक चालकता के जल सिंचाई के लिए अनुपयुक्त होते हैं। 750 माइक्रो मोड्स विद्युत चालकता वाले जल से लवण सहिष्णु फसलों की सिंचाई की जा सकती है।

2. सोडियम की सांद्रता तथा कैल्शियम और मैग्नीशियम के योग से सोडियम का अनुपातः सोडियम की उपस्थिति के कारण सिंचाई जल हानिकारक माना जाता है परन्तु सबसे हानिकारक जल में सोडियम की मात्रा कैल्शियम और मैग्नीशियम के योग से अधिक पायी जाती है। ऐसा जल सिंचाई वाले स्थान को ऊसर बनाने में सहायक होता है।

3. बोरोन की सांदताः तीन पी.पी.एम. (10 लाख भाग में 3 भाग) बोरोन की उपस्थिति पर केवल सहिष्णु फसलें उगाई जा सकती हैं। एक पी.पी. एम. बोरोन से कम मात्रा वाला जल सिंचाई के लिए सुरक्षित होता है।

4. कार्बोनेट तथा बाईकार्बोनेट की सांद्रताः- सिंचाई जल में कार्बोनेट तथा बाईकार्बोनेट की मात्रा 2.5 मि.ली. तुल्य प्रति लीटर से अधिक होने पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

सिंचाई जल में सुधार के उपायः किसानों के लिए सिंचाई जल का चुनाव करना कठिन कार्य है, क्योंकि उपलब्ध जल में सिंचाई करना उनकी विवशता होती है। इस प्रकार दूषित जल से सिंचाई करने के परिणाम स्वरूप मृदा की अवस्था बिगड़ने के साथ-साथ उत्पादन में भी कमी आ जाती है। इसे निम्न उपायों द्वारा कम किया जा सकता है।

1. सिंचाई जल में चूना मिलाकर।

2. खराब जल के साथ अच्छे पानी को मिलाकर सिंचाई करने से दूषित जल के प्रभाव को कम किया जा सकता है।

3. सुरक्षित एवं उचित सिंचाई विधि अपनाकर।

4. गन्धक का अम्ल तथा जिप्सम को सिंचाई जल में मिलाकर।

5. जीवांश पदार्थ युक्त जल (सीवेज एवं पशुशाला के कचरे) को सिंचाई जल से मिलाकर।

6. सिंचाई जल से हानिकारक तत्वों को अलग करके सिंचाई करने से (व्यावहारिक दृष्टि से यह विधि अभी प्रयोग में नहीं है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।