
मक्का की खेती करने की वैज्ञानिक विधि Publish Date : 21/05/2025
मक्का की खेती करने की वैज्ञानिक विधि
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 शालिनी गुप्ता
खरीफ फसलों में धान के बाद मक्का उत्तर प्रदेश की मुख्य फसलों में से एक है। इसकी खेती अनाज, भुट्टे एवं हरे चारे के लिए की जाती है। मक्का की अच्छी उपज के लिए आवश्यक है कि समय से बुवाई, निराई-गुड़ाई खरपतवार नियंत्रण, उर्वरकों का संतुलित प्रयोग, समय से सिंचाई एवं कृषि रक्षा साधनों को अपनाया जाए। संस्तुत मधन पद्धतियां अपनाकर संकर/संकुल प्रजातियों की उपज सरलता से 35-40 क्विंटल प्रति हैक्टेयर प्राप्त की जा सकती है। साथ ही अल्प अवधि की फसल होने के कारण बहु फसली खेती के लिए इसका अत्यंत महत्व है।
सघन पद्धतियां:-
1 उपयुक्त भूमिः मक्का की खेती के लिए उत्तम जल निकास वाली बलुई दोमट भूमि उपयुक्त होती है।
2. खेत की तैयारीः- खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा अन्य दो या तीन जुताईयां देशी हल या कल्टीवेटर या रोटावेटर द्वारा करनी चाहिए।
3. शुद्ध बीज का प्रयोगः अच्छी उपज प्राप्त करने हेतु उन्नतशील प्रजातियों का शुद्ध बीज ही बोना चाहिए। बुवाई के समय एवं क्षेत्र अनुकूलता के अनुसार प्रजाति का चयन करें।
4. बुवाईः
A. बुवाई का समयः देर से पकने वाली मक्का की बुवाई मध्य मई से मध्य जून तक पलेवा करके करनी चाहिए। जिससे वर्षा प्रारंभ होने से पहले ही खेत में पौधे भली भांति स्थापित हो जायें और बुवाई के 15 दिन बाद एक निराई भी हो जाए। शीघ्र पकने वाली मक्का की बुवाई जून के अंत तक कर ली जाए।
B. बीजोपचारः बीज बोने से पूर्व यदि शोधित न किया गया हो तो 1 किग्रा. बीज को थाइरम 2.5 ग्राम या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम से बोने से पहले शोधित कर लें।
C. भूमि:
शोधन तथा जिंक का प्रयोगः जिन क्षेत्रों में दीमक का प्रयोग होता है वहां अन्तिम जुताई पर क्लोरपाइरीफास 20 ईसी की 2.5 लीटर मात्रा को 5 लीटर पानी में घोलकर 20 किलो बालू में मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई के पहले मिट्टी में मिला दें। जिंक तत्व की कमी के कारण पत्तियों के नस के दोनों और सफेद लंबी धारियां पड़ जाती हैं। जिन क्षेत्रों में गत वर्ष ऐसे लक्षण दिखाई दिये हों उनमें अंतिम जुताई के साथ 20 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में मिलाकर बीज बोना चाहिए। इसका प्रयोग फॉस्फोरस उर्वरक के साथ मिलाकर न किया जाए।
D. बीजदरः देशी-छोटे दाने वाली प्रजाति के लिए 16-18 किग्रा. संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए 18 किग्रा. प्रति हैक्टेयर।
E. बुवाई की विधिः बुवाई हल के पीछे कूड़ों में 3.5 सेमी. की गहराई पर करें। लाइन से लाइन की दूरी अगेती किस्मों में 45 सेमी. तथा मध्यम एवं देर से पकने वाली प्रजातियों में 60 सेमी होनी चाहिए। इसी प्रकार अगेती किस्म में पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी तथा मध्यम एवं देर से पकने वाली प्रजात्तियों में 25 सेमी. होनी चाहिए।
5. निराई, खरपतवार नियंत्रणः मक्का की खेती में निराई-गुड़ाई का अधिक महत्व है। निराई-गुड़ाई द्वारा खरपतवार नियंत्रण के साथ ही ऑक्सीजन का संचार होता है जिससे वह दूर तक फैल कर भोज्य पदार्थ को एकत्र कर पौधों को देती है। पहली निराई जमाव के 15 दिन बाद करनी चाहिए और दूसरी निराई 35-40 दिन बाद करनी चाहिए। मक्का में खरपतवारों को नष्ट करने के लिए एट्राजीन (50ः डब्लू.पी. 1.5-2.0 किग्रा. प्रति है.) घुलनशील चूर्ण का 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के दूसरे या तीसरे दिन अंकुरण से पूर्व प्रयोग करने से खरपतवार नष्ट हो जाते हैं।
सहफसली खेती में एलाक्लोर 50 ईसी 4 से 5 लीटर बुवाई के तुरंत बाद जमाव के पूर्व 700-800 लीटर पानी में मिलाकर भी प्रयोग किया जा सकता है। यदि मक्का के बाद आलू की खेती करनी हो तो एट्राजीन का प्रयोग नहीं करें।
6. उर्वरकों का संतुलित प्रयोगः-
अ मात्राः मक्का की भरपूर उपज लेने के लिए संतुलित उर्वरकों का प्रयोग आवश्यक है। अतः कृषकों को मृदा परीक्षण के आधार पर उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। यदि किसी कारणवश मृदा परीक्षण न हुआ हो तो देर से पकने वाली संकर एवं संकुल प्रजातियों के लिए क्रमशः 120:60:60 व शीघ्र पकने वाली प्रजातियों के लिए 100:60:40 तथा देशी प्रजातियों के लिए 60:30:30 किग्रा. नत्रजन, फॉस्फोरस तथा पोटाश प्रति हैक्टेयर प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद 10 टन प्रति हैक्टेयर प्रयोग करने पर 25% नत्रजन की मात्रा कम कर देनी चाहिए।
ब. विधिः बुवाई के समय आधी नत्रजन, पूर्ण फॉस्फोरस तथा पोटाश कूड़ों में बीज के नीचे डालना चाहिए। नत्रजन की शेष मात्रा को दो बार में बराबर-बराबर मात्रा में टापड्रेसिंग के रुप में करें। पहली टापड्रेसिंग बोने के 25-30 दिन बाद (निराई के तुरंत बाद) एवं दूसरी नर मंजरी निकलते समय करें। यह अवस्था संकर मक्का में बुवाई के 50-60 दिन बाद एवं संकुल में 45-50 दिन बाद आती है।
7. जल प्रबंधनः- पौधों को प्रारंभिक अवस्था तथा सिल्किंग दाना पड़ने की अवस्था पर पर्याप्त नमी आवश्यक है। अतः आवश्यकतानुसार यदि वर्षा न हो रहीं हो तो सिंचाई अवश्य करना चाहिए। सिल्किंग के समय पानी न मिलने पर दाने कम बनते हैं, वर्षा के बाद खेत से पानी के निकास का अच्छा प्रबंध होना चाहिए, अन्यथा पौधे पीले पड़ जाते हैं और उनकी बढ़वार रुक जाती है।
8. अन्य आवश्यक क्रियायें: वर्षा के पानी और तेज हवा से फसल को बचाने के लिए पौधे की जड़ों पर मिट्टी पलटने वाले हल से मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए।
9. फसल की देखरेख- कौओं, चिड़ियों तथा जानवरों से फसल की रक्षा हेतु फसल की उचित देखभाल करना आवश्यक है।
10. कटाई-मड़ाईः- फसल पकने पर भुट्टों को ढंकने वाली पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं। इस अवस्था पर कटाई करनी चाहिए। भुट्टों की तुड़ाई करके डंठल को छीलकर धूप में सुखाकर हाथ या मशीन द्वारा दाना निकाल देना चाहिए।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।