
अकृषि भूमि पर बॉस रोपण एवं किसान को आर्थिक लाभ Publish Date : 14/05/2025
अकृषि भूमि पर बॉस रोपण एवं किसान को आर्थिक लाभ
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु
बांस एक बहुपयोगी वन प्रजाति है। ग्रामीण क्षेत्रों में घर बनाने के लिए ही नहीं वरन दैनिक उपयोग के कई घरेलू सामान बनाने में इसका उपयोग किया जाता है। अधिकांश ग्रामीण परिवार तो पीढ़ियों से बॉस को टोकरियां एवं घरेलू उपयोग के कई अन्य सामान बनाकर अपना भरण पोषण करते आ रहे हैं। कागज की लुग्दी बनाने में इसकी उपयुक्तता के कारण औद्योगिक क्षेत्र में तथा व्यापक उपयोग के कारण व्यापारिक क्षेत्र में भी बांस की बहुत मांग है
बांस विभिन्न प्रकार की जलवायु एवं विभिन्न मृदा श्रेणियों में आसानी से उगाया जा सकता है। यद्यपि यह एक वानिकी प्रजाति है, परन्तु अकृषि भूमि एवं कृषि भूमि की मेड़ों पर भी आसानी से लगाया जा सकता है। मध्यप्रदेश राज्य वन विकास निगम द्वारा कृषकों के खेतों की मेढ़ों, कृषि भूमि एवं अलाभप्रद पऱती भूमि पर बांस लगाने की योजना राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के सहयोग से बनाई गई है। बांसों से कृषक न केवल अपनी घरेलू आवश्यकता को पूरा कर सकेंगे वरन शेष बांसों को बाजार में बेचकर अधिक धन प्राप्त कर सकते हैं। बांस रोपण से क्षेत्र के पर्यावरण में भी सुधार किया जा सकता है।
अ. बांस रोपण की सामान्य जानकारी
1. भूमि का चयनः अकृषि भूमि, फसलोत्पादन हेतु असक्षम भूमि, कृषि के मेड़ व कृषि योग्य परती भूमि आदि।
2. प्रजातिः साधारण बांस/कटंग बांस
3. अन्तरालः बांस पौधों के बीच का अंतराल उस क्षेत्र में पाई जाने वाली मिट्टी की गहराई एवं उसकी उत्पादन क्षमता के अनुरूप वन विकास निगमके कर्मचारियों द्वारा निर्धारित किये जाते है। सामान्यतः कृषि भूमि की मेड़ों पर 4 अथवा 6 मी. की दूरी पर बांस पौधे लगाये जा सकते हैं और पड़त भूमि पर 3×3 मी., 4×4 मी., 5×5 मी. अथवा 6×6 मी. के अंतराल पर लगाये जाते हैं।
4. रोपण गहराई सामान्यतः भूमि सतह से 20-25 सेमी. गहराई पर बांस पौधों को रोपित किया जाता है।
5. गड्ढ़ा खुदाईः रोषण के पूर्व निर्धारित स्थलों पर 45×45×45 सेमी. के गड्ढे खोदे जाते हैं।
6. मेढ़ों पर रोपणः मेढ़ों पर लगाये गये बांस के पौधे खेत में लगाई गई फसल पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले इसके लिए मेढ़ों पर बांस के पौधो की 4.5 या 6 मीटर की दूरी पर लगाया जाता है। वैसे बांस के वृक्षों की छाया इतनी घनी नहीं होती है कि फसल पर विपरीत प्रभाव डाले।
7. खादः बांस पौधा लगाते समय गड्ढे में जो मिट्टी भरी जाती है। उसमें गोबर खाद, उपजाऊ मिट्टी तथा रेत बराबर भागों में मिलाई जाती है। सामान्यतः एक पौधे को 5 किलो ग्राम गोबर खाद की आवश्यकता पड़ती है। पौधों में कोई भी रासायनिक खाद नहीं दी जाती है।
8. सिंचाईः बांस रोपण के प्रथम वर्ष में मार्च, अप्रैल, मई तथा जून माह में दो-दो बार ड्रिप सिंचाई पद्धति से पौधों की सिंचाई की जाती है।
9. बाड़ (फेन्सिग): मेड़ पर लगाये गये पौधों को छोड़कर कुछ संतही भूमि आदि पर तथा पड़त भूमि में लगाये गये पौधों की सुरक्षा के लिए रोपित क्षेत्र के चारों ओर कांटेदार झाड़ियों की बाड़ लगाई जाती है।
10. निंदाई एवं गुड़ाईः पौधे के रोपण के वर्ष सहित तीन वर्षों तक पौधों की निंदाई एवं गुढ़ाई की जाती है।
11. बांस कटाईः परिपक्व बांसों को भूमि से पहली और दूसरी गठान के बीच में तेज धार वाली कुल्हाडी से आड़ा कट लगाकर काटा जा सकता है। वन विकास निगम द्वारा अपने क्षेत्रीय तकनीकी कर्मचारियों के माध्यम से कृषकों को लगातार बांस के वृक्षारोपण उसके रख रखाव कटाई एवं निवर्तन तक हर स्तर पर तकनीकी मार्गदर्शन दिया जाता है। इसके लिए परियोजना व्यय 75 पैसे प्रति पौधे की दर से पर्यवेक्षण व्यय का प्रावधान किया जाता है।
परती भूमि में वृक्षरोपण से कम आधे एकड़ क्षेत्र में किया जाना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों में पौधों के बीच का अन्तराल वहां पाई जाने वाली मृदा की गहराई और उसकी उत्पादन क्षमता के अनुसार निर्धारित किया जाता है। जहां 4×4 मीटर की अंतराल पर पौधे लगाये जाते हैं, वहां आधा एकड़ क्षेत्र में 125 पौधे और जहां 5×5 मीटर अंतराल पर पौधे लगाये जाते हैं। वहां पर 80 पौधे तथा जहां 6×6 मीटर के अंतराल पर पौधे लगाये जाते हैं, वहां 55 पौधे लगाये जाते है।
स. आर्थिक प्रबन्ध एवं लागतः- बांस उत्पादन की योजना का प्रदेश के व्यापक क्षेत्रों में क्रियान्वयन किया जा रहा है। अतः कई व्यावसायिक बैंकों द्वारा ऋण प्रदान किया जा रहा है। सामान्यतः सम्बन्धित गांव के निकटस्थ स्थित व्यावसायिक बैंक से उस गांव के कृषकों को ऋण प्रदान किया जा सकता है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया, पंजाब नेशनल बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इण्डिया, इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, दैना बैंक, सिंडिकेट बैंक, बैंक की शाखायें वन विकास निगम के परियोजना मण्डलों के कार्य क्षेत्र के अंदर एवं आस पास स्थित हैं।
अतः सामान्यतः इन्हीं बैंको द्वारा ऋण प्रदान किये जाते हैं। वृक्षारोपण हेतु प्रति इकाई क्षेत्र अर्थात प्रति हैक्टेयर या प्रति 100 मीटर में पौधों की संख्या भिन्न-भिन्न होती है। अतः व्यय की गणना प्रति हैक्टेयर अथवा प्रति 100 मीटर में न करके, प्रति पौध आय व्यय का आकलन करना उचित है।
नीचे दी गई गणना के अनुसार प्रति पौध पर प्रथम चार वर्षों में कुल मिलाकर रूपये 48-25 व्यय किये गये हैं। आय-व्यय की गणना, दस विभिन्न क्षेत्रों से चुने गये कृषकों की जानकारी के आधार पर संकलित आंकड़ों से किया गया है। प्रति पौध भिर्रा का तात्पर्य एक पौध समूह से है जिसकी आर्थिकी आकड़े औसत के आधार पर निर्धारित किया गया है।
द. आर्थिक लाभ:- 6 वर्षों में बांस पूरी तरह से बढ़कर भिर्रां का रूप ले लेता है और सातवें वर्ष में कटाई हेतु परिपक्व हो जाता है। अतः 7वें वर्ष में तथा उसके बाद 3 वर्ष के अंतराल में बांस भिर्रें में कटाई की जाकर बांस प्राप्त किये जा सकते हैं। सामान्यत 7वें वर्ष में कटाई पर 6 बांस, 10वें वर्ष में 8 बांस तथा 13वें वर्ष में 10 परिपक्व बांस प्राप्त हो सकते हैं। 16वें, 19वें, 22वें वर्ष तथा इसी अंतराल में आगामी कटाई में प्रत्येक कटाई पर 10 या इससे अधिक बांस प्राप्त हो सकते हैं। वर्तमान बाजार भाव पर एक अच्छे बांस का मूल्य न्यूनतम रु. 33.50 है। भविष्य में इससे अधिक मूल्य वृद्धि संभव है।
कृषकों के पास उपलब्ध समस्त संसाधनो का उसकी उपयोगिता के आधार पर भिन्न-भिन्न महत्वों में आर्थिक महत्व ‘मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों को दर्शाता है।’
बांस का उत्पादन भी कृषि वानिकी का एक रूप है, जिससे फसलों के उत्पादन के साथ व्यवसायिक रूप से वनोत्पादन एक मिश्रित खेती का रूप है। बांस को मेड़ों पर लगा लेने से फसलोत्पादन पर विशेष विपरीत प्रभाव नहीं पड़ने देते हैं और जिन भूमियों में फसलोत्पादन आर्थिक रूप सही नहीं है, साथ ही कटाव वाली भूमियों पर बांस रोपण अच्छी आय देता है।
बांस उत्पादन के आर्थिक महत्व में दर्शाया गया है कि बांस के वन किस प्रकार मनुष्य के आर्थिक विकास में सहयोगी है तथा कृषि उत्पादन में धन, भूमि, श्रम व अन्य संसाधनों का समुचित उपयोग करते हुए अतिरिक्त आय, रोजगार व सुविधा प्रदान करता है।
कृषि क्षेत्र में बांस एक बहुवर्षीय पौध है जिससे आय और व्यय का विश्लेषण करना एक जटिल कार्य है। साथ ही इसके उत्पादन आगतों एवं उत्पादन पर विभिन्न कारकों का प्रभाव पड़ता है और विभिन्नता के कारण आगत तथा उत्पाद की मात्रा एवं मूल्य में विभिन्नता आना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त बांसों को परिपक्वता अवधि भी भिन्न होती है इसके अलावा एक ही पौधे की विभिन्न किस्मों, शस्य क्रियाओं, खेती की पद्धति आदि भी भिन्न होने के साथ निश्चित आय का समय निर्धारण करना कठिन है। कृषि वानिकी में बांसों के सीमित क्षेत्र में होने से सम्बन्धित आंकड़ों का अभाव है।
इस परिस्थिति में वैज्ञानिक एवं आर्थिक अनुमान तथा आकलन के आधार पर ही औसत रूप से आय व्यय का विश्लेषण किया जा सका है। प्रस्तुत विश्लेषण में बांसो की उत्पादित पौधो की परिपक्वता अवधि सात वर्ष का औसत समय आंका गया है और आगतों तथा उत्पादन का मूल्य बाजार भाव के आधार पर व श्रम की मजदूरी प्रचलित दर से किया गया है। फिर भी उत्पादन कारकों को जिनको अप्रभावित कारक मानकर विश्लेषण किया गया है।
बांस उत्पादन के आय व्यय को प्रभावित करके भिन्नता ला सकते हैं। अतः आय व्यय का आर्थिक विश्लेषण मात्र अनुमानित किन्तु वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर निहित है।
बॉस में पुष्पन एक रहस्य
बांसों की कुछ प्रजातियों में एक निश्चित अंतराल के बाद फूल आते हैं, कुछ प्रजातियों में कभी कभार फूल आते हैं तथा कुछ प्रजातियों में फूल आते ही नहीं हैं। यह प्रकृति का एक रहस्य है बांस में जब फूल आते हैं तो अनेकों बीज बनते हैं जिसे चूहे अधिक पसंद करते हैं तथा चूहों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाने से अकाल पड़ता है। इस प्रकार का अकाल 1864 में, 1910 में एवं 1924-28 में होना पाया गया है। दो प्रकार के अकालों का उल्लेख मिलता है जिसमें मिजोरम में ष्थिंगटम जो कि 18+2 वर्ष बाद पड़ता है तथा ‘‘मौटम” अकाल 48-2 वर्ष बाद पड़ता है। यह बांसों में निर्धारित चक्र है तथा इसी अंतराल पर पूवोत्तर राज्यों में बांस में फूल आते हैं।
इसी प्रकार वृहत स्तर पर बांस में फूल आने का उल्लेख 1920-21 में गारो पहाड़ियां एवं मेघालय में, वर्ष 1929-30 में नागालेण्ड में, वर्ष 1954-55 में मणीपुर में तथा वर्ष 1958 में असम के कामेंग क्षेत्र में मिलता है। पिछले वर्षों में 1991 में अरूणांचल प्रदेश में तथा 1998 में मणीपुर के तमिंगलोग, चूडाचन्द्रपुर तथा उखरूल जिलों में बांस में वृहत स्तर पर पुष्पन का उल्लेख मिलता है। अभी हाल में वर्ष 2004 में गारो की पहाड़ियां (मेघालय) कोलाब जिला (मिजोरम) में बांसों में पुष्प आने का उल्लेख मिलता है।
बांस में फूल अक्टूबर-दिसम्बर के मध्य आते हैं तथा बीज जनवरी फरवरी में बन जाते हैं। यह बीज मार्च से मई तक जमीन पर गिरते रहते हैं। इन्हीं बीजों को खाने के लिए चूहों की संख्या अप्रत्याक्षित रूप से बढ़ जाती है जिससे प्लेग जैसे रोग भी फैल चुके हैं। इस प्रकार बांस में फूल आने के वर्ष को तबाही का वर्ष माना जाता है बचे हुए बीज वर्षा होने पर उगते हैं। यह भी कहा जाता है कि बांस में फूल आने के बाद बांस सूख जाते हैं।
इस प्रकार बांस में फूल आने के समय अकाल पड़ने का उल्लेख म्यामांर, जापान तथा दक्षिणी अफ्रीका में भी मिला है। मिजोरम व पूर्व के अन्य राज्यों के लोग बांस में फूल आने की खबर से सिहर उठते हैं क्योंकि यह तबाही का सूचक माना गया है। अकाल के कारणों में बांसों के सूख जाने के बाद नये बांसों का उत्पादन शुरू होने में 7-8 वर्ष लगते हैं। बांस के फूल समाप्त हो जाने पर चूहों द्वारा अन्य कृषि जिन्सों को विशेष हानि पहुंचाई जाती है जिससे अकाल का खतरा रहता है।
लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।