सोयाबीन की उन्नत खेती      Publish Date : 06/05/2025

                         सोयाबीन की उन्नत खेती

                                                                                              प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

सोयाबीन विश्व की एक प्रमुख तिलहनी, औषधीय एवं पौष्टिक गुणों से भरपूर एक लाभदायक फसल है। मौसम की विपरीत परिस्थितियों को सहन करने के गुणों से भरपूर होने के कारण कृषकों में लोकप्रिय एवं किसानों के लिए समृद्धीकारक फसल रही है। पिछले कुछ वर्षों में अनेक कारणों से सोयाबीन की उत्पादकता हमारे देश में एक टन प्रति हैक्टेयर के आसपास ही है, जबकि विश्व के अन्य उत्पादक देश 2 से 2.5 टन प्रति हैक्टेयर औसत उत्पादन लेते हैं।

भारत में सोयाबीन का उत्पादन 100 लाख टन तक ही हो पाता है, जबकि सोया प्रसंस्करण इकाइयों की वर्तमान क्षमता 200 लाख टन के आसपास है। इसलिये यह आवश्यक है कि भारत में सोयाबीन का उत्पाद 1.5 से 2 गुना बढ़ाने के लिए समग्र प्रयास किए जाएं।

भारत में सोयाबीन के कम उत्पादन का मूल कारण सही तकनीकी का सही समय पर उपयोग न किया जाना है। अतः प्रस्तुत लेख में दी गई जानकारी को अपनाकर कृषक अपनी लागत मूल्य भी कम कर सकेगा। कृषक इन उन्नत तकनीकों को अपनाकर समृद्ध होंगे, सोयाबीन की खाद्य में उपयोगिता बढ़ेगी, देश से कुपोषण हटेगा एवं अधिक से अधिक विदेशी मुद्रा अर्जित होगी।

                                        

खेत का चुनावः सोयाबीन की खेती के लिए अच्छे जल निकास वाली मध्यम से गहरी काली मिट्टी उपयुक्त होती है। खेत का ढाल इस प्रकार हो कि जल का निकास अच्छी तरह हो जाये और खेत में पानी नहीं रुके। खेत की मिट्टी अम्लीय या क्षारीय नहीं होनी चाहिए। मिट्टी का पी.एच. 7 के आसपास होना चाहिए। खेत की मिट्टी की जांच दो वर्ष के अंतराल पर अवश्य करा लेनी चाहिए एवं जांच अनुसार ही पोषक तत्वों को डालना एवं मात्रा का निर्धारण करना चाहिए।

भूमि की गहरी जुताईः- रबी की फसल कटाई के तुरंत बाद मिट्टी पलटने वाले हल (मोल्ड बोर्ड हल) से खेत की 12-14 इंच गहरी जुताई कर भूमि को गर्मी की धूप लगने के लिये खुला छोड़ देना चाहिए। अगर ऐसा करना हर वर्ष संभव न हो तो कम-से-कम दो या तीन वर्ष में एक बार अवश्य ही करना चाहिए।

ऐसा करने से भूमि में उपस्थित खरपतवार के बीज, बीमारियों के जीवाणु एवं कीटाणुओं के अंडे आदि तेज धूप से नष्ट हो जाते हैं और फसल में कीट, बीमारी और खरपतवार कम उगते लगते हैं तथा इनकी रोकथाम में कम खर्च होता है। यह एकीकृत प्रबंधन का प्रथम सोपान है। इससे वर्षा के जल को भूमि में सोखने की क्षमता बढ़ती है एवं जल को भूमि में समाने में भी सुविधा होती है व पानी खेत से बाहर बहकर व्यर्थ नहीं जाता है। यदि फसल उत्पादन के दौरान कम वर्षा होती है तो गहरी जुताई किये गये खेत में लगाई गई फसल को सूखे से कम नुकसान होता है।

खेत की तैयारीः- जून के प्रथम सप्ताह में, पहली बौछार के बाद मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों को तोड़ने के लिए एक या दो बार कल्टीवेटर या हैरो को विपरीत दिशा में चलाकर एवं पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए। 20-25 लाईनों के बाद एक नाली का निर्माण करने से अधिक वर्षा के दौरान पानी का निकास हो सकेगा एवं कम वर्षा के दौरान इन नालियों के माध्यम से सिंचाई की जा सकती है।

पिछले वर्षों में वर्षां की कमी एवं अनिश्चितता को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त होगा कि सोयाबीन एवं खरीफ की अन्य फसलों को ब्राड बेड फरो (45 सेमी. की 7 कतारों के बाद गहरा कूड बनाना) अथवा रिज एवं फरो (गन्ने वाली कूड बनाना) पद्धति अपनाकर बोयें। इस पद्धति को अपनाने के लिए ट्रेक्टर चलित मशीनें विकसित की गई हैं। रिज एवं फरो पद्धति के लिए देशी तरीके बुवाई मशीन में पटिये लगाकर की जा सकती है। 

भूमि उपचारः- चक्रभंग (गर्डल बीटल), तना मक्खी (स्टेमफ्लाई) एवं अन्य मिट्टी में निवास करने वाले कीटों के प्रबंधन के लिये एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण या फोरेट 10 जी 10 किग्रा. प्रति हैक्टेयर के हिसाब से रसायनिक उर्वरक के साथ मिलाकर डाला जा सकता है। इससे सोयाबीन की फसल में कीटों का प्रभावी नियंत्रण होता है।

खाद एवं उर्वरकः- सोयाबीन की अच्छी व टिकाऊ उपज लेने के लिये यह उत्तम होगा कि सर्वप्रथम स्वयं के पास उपलब्ध गोबर या अन्य किसी जैविक खाद का उपयोग करें तथा पूर्ण पोषक तत्वों की मात्रा की पूर्ति हेतु रसायनिक उर्वरकों को उपयोग में लायें।

अ. जैविक खादः जैविक खाद के उपयोग से भूमि में प्रमुख पोषक एवं सभी सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता तथा व जलधारण की क्षमता बढ़ जाती है, जो पौधों की वृद्धि व उत्पादन बढ़ाने के लिए आवश्यक है। अंतिम बखरनी के पूर्व सड़ी हुई गोबर की खाद लगभग 10 टन या 12-16 किलो रॉक फॉस्फेट मिलाकर बनी हुई नाडेप फॉस्फो कम्पोस्ट की 20-25 क्विंटल मात्रा या 25-30 क्विंटल नाडेप खाद या 15-20 क्विंटल वर्मी कम्पोस्ट खाद प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में फैला दें एवं पाटा चलाकर समतल कर दें, अगर खाद की उपलब्धता सीमित हो तो खेत को दो भागों में बांटकर बारी-बारी से वर्षवार डालना उचित रहता है। जैविक खादों का उपयोग जितनी मात्रा स्वयं के पास उपलब्ध हो उसे खेत में डालने के बाद यदि और खाद की आवश्यकता हो तो उसे रसायनिक खादों से पूर्ति अवश्य करना चाहिए।

बॉयोगैस संयंत्र से निकली पतली स्लरी खेत में नालियां बनाकर सिंचाई के समय पानी में मिलाकर एक हैक्टेयर के लिये 50 से 60 क्विंटल स्लरी पर्याप्त होती है।

रसायनिक उर्वरकः- अनुसंशित उर्वरकों की मात्रा बुवाई समय फर्टी ड्रिल से खेत में देनी चाहिए। उर्वरकों को बीज के 2.5-3.0 सेमी. नीचे या बगल में डाला जाना उचित रहता है। यदि फर्टी सीड ड्रिल से बुवाई एवं उर्वरक साथ देना संभव नहीं हो तो बुवाई से पहले उर्वरकों की सही मात्रा एवं एण्डोसल्फान 4 प्रतिशत चूर्ण या फोरेट 10 जी. का मिश्रण खेत में एकसार डालकर कल्टीवेटर से मिट्टी में मिला देना चाहिए।

पोषक तत्वों की मात्राः रसायनिक उर्वरकों में 43 किलो यूरिया, 375 से 500 किलो सुपर फास्फेट व 33 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश प्रति हैक्टेयर दें। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार सोयाबीन में अच्छी उपज लेने के लिए सुपर फास्फेट द्वारा ही फास्फेट तत्व की पूर्ति करना चाहिए और इससे स्वतः सल्फर भी मिल जाता है, जो सोयाबीन के लिए अत्यावश्यक तत्व है। या 125 किलो डीएपी, 33 किलो म्यूरेट ऑफ पोटाश से उपरोक्त तत्वों की पूर्ति प्रति हैक्टेयर हो सकती है। साथ में सल्फर की मात्रा की पूर्ति हेतु 250-300 किग्रा. सुपर फॉस्फेट प्रति हैक्टेयर खेत में मिलाना चाहिए।

  • जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में 25 किलो जिंक सल्फेट प्रत्येक तीन वर्ष में मृदा परीक्षण के पश्चात डालें।
  • रसायनिक खाद को कभी भी बीज के साथ मिलाकर प्रयोग न करें।
  • खड़ी फसल में नत्रजन (नाइट्रोजन) अथवा अन्य किसी उर्वरक का उपयोग विशेषज्ञ की सलाह के बिना न करें।

                                           

उत्तम जाति का चुनावः भारत में विभिन्न जलवायु क्षेत्रों के उपयुक्त सोयाबीन की उन्नत किस्मों की बुवाई कृषक अपने क्षेत्र में बीज उपलब्धता के आधार पर किस्मों का चुनाव कर उत्तम गुणवत्ता वाले बीज का समुचित मात्रा में पहले से ही प्रबंध कर लें। ऐसी जाति का चुनाव करना आवश्यक है जो रोगरोधक, कीटरोधक एवं फली चटकने के प्रति सहिष्णु हो। जिस खेत में गत वर्ष सोयाबीन रस्ट बीमारी आयी हो उस खेत के बीज को बुवाई के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए।

बीज एवं बुवाईः- बुवाई के पहले बीज अंकुरण दर की जांच अवश्य करें। बुवाई पूर्व बीज को उपयोग से पहले बीज की अंकुरण क्षमता (कम से कम 70 प्रतिशत) अवश्य सुनिश्चित कर लें। इस हेतु बीज अंकुरण क्षमता की जांच निम्नलिखित तरीके से की जा सकती है।

अंकुरण परीक्षणः-

क्यारी विधिः जून के प्रथम सप्ताह में 10 मीटर की क्यारी सिंचाई कर बना लें तथा बीज का सभी बोरों से नमूना लेकर कतारों में 45 सेमी. की दूरी पर जैसे खेत में बोते हैं वैसे ही बुवाई कर दें। आठ दिन बाद क्यारी में पौधों की संख्या गिन लें। यदि क्यारी में 4000 या इससे अधिक पौधे हो तभी इस बीज का उपयोग बुवाई के लिए करें अन्यथा दूसरे बीज का प्रबंध करें। अथवा

टाट के टुकड़े में: पानी में भीगे टाट के चार 1×1 फीट चौड़े टुकड़ों पर बीज के सभी नमूने में से 100 बीज लाईनों में प्रति टुकड़ा लगाकर बिस्तर की तरह लपेटकर अंधेरे कोने में रख दें व रोज थोड़ा-थोड़ा पानी छिड़कर कर नमी बनाये रखें। 6-8 दिन बाद चारों टाट के टुकड़ों को खोलकर तंदुरुस्त अंकुरित बीज गिन लें और कुल अंकुरित संख्या में 4 से भाग दें, यदि अंकुरित संख्या 70 या अधिक आये तभी इस बीज को बुवाई हेतु इस्तेमाल करें। अथवा

अखबार में: अखबार की दो परतों को लेकर उसके आधे भाग को हल्का गीला करके, नमूने में से 400 बीजों को लाईनों में लगाकर रखें। ऊपर के शेष आधे भाग की दोहरी परत से स्वस्थ अंकुरित दानों को गिन लिया जाए व उनका योग करके उसे 4 से भाग दें। यदि भागफल 70 या अधिक आए तो ही बीज को बोनी के उपयोग में लें।

उपयुक्त पौध संख्याः अच्छी उपज के लिए सबसे प्रमुख आवश्यकता है कि खेत में 4 से 6 लाख स्वस्थ पौधे प्रति हैक्टेयर हो अर्थात 1 मीटर कतार में 20 स्वस्थ पौधे हों। बीज वही बुवाई करना चाहिए जिसका अंकुरण की दर कम से कम 70 प्रतिशत हो। अच्छे बीज का सोयाबीन की उपज पर प्रभाव पड़ता है एवं किसान के शुद्ध लाभ को देखते हुए यह आवश्यक है कि बीज की गुणवत्ता के लिए ख्याति प्राप्त विश्वसनीय स्रोतों से हो प्रमाणित श्रेणी का बीज खरीदा जाए।

बीजोपचारः- सोयाबीन की अच्छी उपज के लिए फफंूदनाशक एवं कल्चर द्वारा निम्नलिखित विधि से बीज का उपचार अवश्य करना चाहिए।

फफूंदनाशक द्वारा बीज उपचारः फफूंदनाशक दवा थाइरम 2 ग्राम एवं कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज का अनुपात से बुवाई के बीज को एक या दो दिन पहले निम्न विधि से बीज को उपचारित करना अति आवश्यक है ताकि पौध एवं बीज सड़न रोग की रोकथाम से भली प्रकार सुरक्षित हो जाए अन्यथा सोयाबीन में बीज सड़न एवं पौध सड़न के रोग से पौधों की संख्या कम रह जाती है जिसका प्रभाव उपज में निश्चित रूप से कमी करता है।

विधिः- अच्छे अंकुरण वाले बीज को एक पॉलीथीन बिछाकर डाल लें एवं पानी का हल्का छींटा देकर बीज को नम कर दें, तदुपरांत हाथों में दस्ताने पहन कर थाइरम एवं कार्बेन्डाजिम की उपर्युक्त मात्रा बीज पर डालकर बीज को धीरे-धीरे ऊपर नीचे मिलाएं ताकि दवा बीज के ऊपर चिपक जाए। ऐसा करने से बीज की सतह सफेद हो जायेगी। बीज को कभी भी रगड़े नहीं। फफूंदनाशक से बीज उपचारित करने के बाद बीज को थैली में रखकर सुरक्षित स्थान पर रख दें एवं सुनिश्चित करें कि बीज को मवेशी आदि न खायें एवं बीज को बच्चों से दूर रखें क्योंकि यह बीज फफूंदनाशक दवा के उपचार से जहरीला हो गया है।

कल्चर द्वारा बीज उपचारः बुवाई के ठीक पहले बीज को प्रभावकारी राइजोबियम कल्चर (जो पौधों में नाइट्रोजनस ग्रंथियाँ बनाने में सहायक है)। (10 ग्राम) एवं पी.एस.बी. कल्वर जो जमीन में स्थिर स्फुर को घुलनशील करते हैं) (10 ग्राम) प्रति किग्रा. बीज (लगभग 800 ग्राम कल्चर प्रति हैक्टेयर) से पानी का छींटा लगाकर बीज में सावधानी से मिला दें, बीज को रगड़े नहीं। उपचारित बीज को कभी धूप में न रखें। कल्चर से उपचारित बीज की बुवाई में कम से कम समय का अंतर है रखना चाहिए। यह आवश्यक है कि कल्चर 1-2 माह अधिक पुराना नहीं हों। कल्चर को सदैव ठंडी जगह छांव में खाद तथा खेती की दवाईयों से दूर रखना चाहिए।

बीज की दरः यदि बीज की अंकुरण व जमाव क्षमता 70 प्रतिशत या उससे अधिक हो तो 70 किग्रा. प्रति हैक्टेयर बीज से साधारणतया अच्छे परिणाम मिलते हैं। छोटे बीज वाली किस्मों में बीज की मात्रा कम की जा सकती है एवं बड़े बीज वाली जातियों में तथा यदि किसी कारणवश बुवाई जुलाई में करनी पड़े तो बीज की मात्रा 90 किग्रा. प्रति हैक्टेयर रखें।

बुवाई की गहराई एवं कतार से कतार की दूरीः- सोयाबीन बीज को 3 सेमी. गहराई में बोने से अंकुरण अच्छा होता है। 20 से 30 जून के मध्य कतार से कतार की दूरी 40-45 सेमी. (16-18 इंच) तथा बीज से बीज की दूरी लगभग 5-7 सेमी. होनी चाहिए। 30 जून के बाद देर से बोई गई सोयाबीन में कतार से कतार की दूरी 30-35 सेमी. - (12-14 इंच) करनी चाहिए।

बुवाई का सही समयः हर संभव प्रयास करना चाहिए ताकि सोयाबीन की बुवाई 15 जून से 30 जून की अवधि में समाप्त कर दी जाए। इस अवधि में बुवाई से अधिकतम उपज प्राप्त होती है। 30 जून के बाद बुवाई में प्रति दिन की देरी से उपज में कमी आती है एवं 10 जुलाई के बाद उपज में भारी कमी आती है।

बुवाई की विधिः- उपर्युक्त विवरण के अनुसार उपचारित बीज को बैलों द्वारा चलित अथवा ट्रेक्टर सोडू ड्रिल से कतार से कतार की दूरी एवं सही गहराई पर बुवाई करनी चाहिए।

फर्टी सीडड्रिल की एक पेटी में उर्वरक की उपयुक्त मात्रा एवं दूसरी पेटी में बीज की उचित मात्रा डालें एवं बीज की निकासी के लीवर का समंजन (एडजस्ट) इस प्रकार करें कि बीज कतार में 5 से 7 सेमी. की दूरी पर बराबर-बराबर गिरे।

बुवाई करते समय ध्यान रखें कि सीड ड्रिल की सभी नालियों से बीज गिर रहा है एवं कोई नली बंद तो नहीं हो गयी। बुवाई के उपरांत खेत में घूमकर सुनिश्चित कर लें कि कहीं पर भी बीज ऊपर या नंगा तो नहीं पड़ा है अर्थात नंगे बीज पर मिट्टी चढ़ा दें। बुवाई के उपरांत एक सप्ताह तक पक्षियों से भी बीज का बचाव करना चाहिए।

फसल चक्रः भारत में प्रचलित फसल चक्र में सोयाबीन का विशेष स्थान है। सिंचित क्षेत्रों में सोयाबीन, गेहूं एवं असिंचित क्षेत्रों में सोयाबीन-चना एक लाभदायक प्रचलित फसल चक्र है। इनके अलावा उपर्युक्त जातियों के चयन उपरांत सोयाबीन आलू, गेहूं, सोयाबीन-तोरिया, सोयाबीन लहसुन गेहूं आदि भी लिए जा सकते है।

एक ही खेत में लगातार सोयाबीन उगाने से उसमें कीटों, रोगों एवं खरपतवारों की समस्या बढ़ जाती है तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी भी भूमि में दिखने लगती है। अतः 2-3 वर्षों में सोयाबीन लगाने के बाद खरीफ मौसम में सोयाबीन वाले खेत में ज्वार, मक्का, मूंग, उड़द, अरहर आदि फसलों को अदल-बदल कर बोना चाहिए।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।

To be continued……………………