शुष्क क्षेत्रों में बाजरा का अधिक उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीकी      Publish Date : 04/05/2025

शुष्क क्षेत्रों में बाजरा का अधिक उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीकी

                                                                                                           प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

देश के वर्षा आधारित एवं शुष्क क्षेत्रों में बाजरा एक महत्वपूर्ण खाद्यान्न फसल है। यह मुख्यतया खरीफ में बोई जाने वाली फसल है और खरीफ का मौसम देश में वर्षा का मुख्य मौसम होता है। अतः बाजरा का कुल क्षेत्र और कुल उत्पादन दोनों ही इस मौसम में होने वाली वर्षा की कुल मात्रा, उसके फसल समय में वितरण, दो लगातार वर्षाओं के बीच के अंतराल आदि परिस्थितियों पर निर्भर करता है।

राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तरप्रदेश और हरियाणा बाजरा उगाने वाले मुख्य राज्य है जहां देश के कुल बाजरा क्षेत्र एवं उत्पादन का 80 प्रतिशत से अधिक होता है। बाजरा इन राज्यों के शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों की मुख्य खाद्यान्न फसल है। ऐसे क्षेत्रों में कम औसत वार्षिक वर्षा, कम उर्वरा शक्ति वाली मृदाएं, अधिक वातावरणीय तापमान, तेज व गर्म हवाएं, कीट व रोगों वाली परिस्थितियां पाई जाती हैं।

इन क्षेत्रों में किसान भी कम पढ़ा-लिखा एवं कमजोर सामाजिक आर्थिक स्तर वाला होता है। इन क्षेत्रों में खेती करना एक अधिक जोखिम वाला कार्य है। इन सभी परिस्थितियों के कारण बाजरा की प्रति एकड़ उपज कम होती है। ऐसे क्षेत्रों में कम लागत वाली फसल प्रबंधन तकनीक और विपरीत मौसम की परिस्थतियों में उपयुक्त आकस्मिक उपाय अपनाकर सतत् अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।

                                            

बुवाई का समय एवं बुवाई की उत्तम तकनीकः उपयुक्त समय पर बुवाई करना शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में अधिक उपज प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। सर्वमान्य नियम के अनुसार वर्षा की शुरुआत के साथ ही बाजरा की बुवाई करना लाभदायक माना जाता है। वर्षा आने के लगभग एक सप्ताह पहले शुष्क बुवाई करना भी लाभदायक पाया गया है। इससे बुवाई के बाद होने वाली वर्षों का फसल वृद्धि के लिए बेहतर उपयोग हो सकता है। देरी से मानसून के आगमन पर, बुवाई के समय लगातार वर्षा होने पर या अन्य कारणों से यदि समय पर बाजरे की बुवाई नहीं हो सके तो पानी की पर्याप्त उपलब्धता वाले क्षेत्रों में नर्सरी तैयार करके भी अगस्त के मध्य तक बाजरा की बुवाई की जा सकती है।

एच. एच.बी.-67, एच.एच.बी.-68, आई.सी.एम. एच.-356 जैसी संकर किस्मों या सी.जेड.पी.-9802, जे.बी.वी.-2, आई.सी.एम.बी. -221 जैसी उन्नत किस्में जो कम समय (65-80 दिन) में पक जाती है, को जुलाई के दूसरे पखवाड़े तक भी खेत में सीधा बोया जा सकता है।

कम वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक उत्पादन के लिए पौधों की उपयुक्त संख्या होना एक महत्वपूर्ण बिंदु है। पौधों की अधिक संख्या (प्रति इकाई क्षेत्र में) जहां ऐसे क्षेत्रों की मृदाओं की कम उर्वरा शक्ति और कम जल स्तर के कारण बाजरा की उपज का कारण बनती है, वहीं पौधों की कम संख्या के कारण पैदावार कम होने का खतरा रहता है। अतः अच्छी वर्षा (400 मि.मी.) वाले और सिंचित क्षेत्रों में 45 सेमी. कतार से कतार की दूरी रखते हुए डेढ से दो लाख पौधे प्रति हैक्टेयर और अनिश्चित एवं कम वर्षा वाले क्षेत्रों जैसे राजस्थान का पश्चिमी मैदानी क्षेत्र, हरियाणा, गुजरात का कच्छ क्षेत्र आदि में कतारों के बीच की दूरी 60 सेमी. रखते हुए एक से सवा लाख पौधे प्रति हैक्टेयर रखे जाये तो उपलब्ध मृदा उर्वरता एवं जल स्तर का प्रभावी उपयोग करके अधिक उपज प्राप्त की जा सकती है। बुवाई के लिए प्रमाणित बीज जो कि किसी मान्यता प्राप्त संस्था से खरीदा गया हो, काम में लेना चाहिए।

बुवाई के समय इस बात का ध्यान रखें कि बीज भूमि में उचित गहराई (2.5-5.0 सेमी) पर हो ताकि बीज का अंकुरण अच्छा हो। पपड़ी (क्रस्ट) की समस्या वाले क्षेत्रों में 3 सप्ताह वाले बाजरे के पौधों का रोपण लाभदायक पाया गया है। यदि सीधे खेत में ही बुवाई की गई हो तो बुवाई के बाद कतारों पर अच्छी तरह से सड़ी हुई गोबर की खाद (5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से) डालना भी पपड़ी की समस्या को कम करके बीजों के अच्छे अंकुरण में प्रभावी माना गया है।

बीजोपचारः- अच्छे अंकुरण एवं बीज जनित रोगों की रोकथाम के लिए बुवाई से पहले बीज उपचार अवश्य करें। यदि खेत की मिट्टी ऊसर है तो अंकुरण के लिए बुवाई से पहले बीज को उक प्रतिशत सोडियम सल्फेट के घोल में 12 घंटे तक भिगोयें फिर साफ पानी से धोकर छाया में सुखाने के बाद कवकनाशी से उपचारित करके बोएं। हरित बाली/जोगिया रोग की रोकथाम के लिए एप्रोन 35 एस.डी. नामक दवा 2 ग्राम सक्रिय तत्व प्रति किग्रा. बीज की दर से बीजोपचार करें। 12 से 14 घंटे तक बाजरे के बीज को पानी में भिगोकर बोना भी अच्छे और शीघ्र अंकुरण के लिए लाभदायक पाया गया है। बुवाई से पूर्व बीज को एजेंटोबेक्टर कल्चर से उपचारित करना भी लाभदायक रहता है। इससे 10-20 किग्रा. नत्रजन प्रति हैक्टेयर तक की बचत की जा सकती है।

                                         

खरपतवारः वर्षा के मौसम में खरपतवार एक मुख्य समस्या बन जाते हैं। बाजरे के साथ ही खरपतवार भी काफी संख्या में उग जाते हैं और यदि इन्हें समय पर नहीं हटाया जाये तो बाजरा के पौधों के लिए नमी, पोषक तत्व, मृदा वायु, स्थान आदि को कमी रह जाती है और उपज 25-30 प्रतिशत तक कम हो सकती है। खरपतवारों के प्रभावी नियंत्रण के लिए दो निराई-गुड़ाई, पहली बुवाई के 15 दिन बाद एवं दूसरी, बुवाई के 30 दिन बाद, पर्याप्त रहती है। निराई-गुड़ाई यदि संभव नहीं हो तो बाजरा की बुवाई के बाद अंकुरण से पहले एट्राजिन नामक दवा का 0.5 किग्रा. प्रति हैक्टेयर (सक्रिय तत्व) की दर से छिड़काव भी बाजरा की शुद्ध फसल में खरपतवारों का नियंत्रण के उपयुक्त पाया गया है। छिड़काव के बाद भी यदि संभव हो तो एक निराई-गुड़ाई करें जिससे खरपतवारों का नियंत्रण तो होगा ही साथ ही साथ वर्षा के पानी का भी खेत में संचय हो सकेगा जो फसल की वृद्धि में लाभदायक रहेगा।

खाद एवं उर्वरकः- शुष्क क्षेत्रों की मृदाओं में सामान्यतः नत्रजन, फॉस्फोरस एवं जस्ते की कमी पाई जाती है, साथ ही फसल उत्पादन के लिए आवश्यक कार्बनिक पदार्थ भी कम ही होते हैं। ऐसा माना जाता है कि शुष्क क्षेत्रों की मृदाएं प्यासी (पानी की कमी) की तुलना में भूखी (पोषक तत्वों की कमी) अधिक होती है। अतः अधिक फसल उत्पादन के लिए इन क्षेत्रों के लिए अनुसंशित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करना चाहिए। प्रायः यह देखा जाता है कि शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में वर्षा की अनिश्चितता, उच्च तापमान आदि पारिस्थितियों के कारण किसान बाजरे की फसल मैं उर्वरकों का उपयोग नहीं करता है। प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित हुआ है कि कम (600 मि. मी.) एवं वर्षा की अनिश्चितता वाले और असिंचित क्षेत्रों में 40-60 किग्रा. नत्रजन, 20-30 किग्रा. फॉस्फोरस तथा 30 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर और पर्याप्त वर्षा (600 मि.मी. और अधिक) वाले और सिंचित क्षेत्रों में 80-90 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉस्फोरस और 30-40 किग्रा. पोटाश प्रति हैक्टेयर की दर से उपयोग में लेना लाभदायक रहता है। नत्रजन की इस मात्रा का आधा भाग और फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के पहले कतारों में 10 सेमी. गहरा कर कर देवें। नत्रजन की शेष मात्रा बुवाई के 3-4 सप्ताह बाद खेत में नमी की उपलब्धता के समय देना चाहिए।

सामान्यतया अनिश्चित वर्षा वाले क्षेत्रों में किसान नत्रजन की प्रारंभिक मात्रा नहीं देते हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि बाद के दिनों में यदि वर्षा नहीं हुई तो उनका लगाया पैसा व्यर्थ ही जायेगा परंतु शुष्क क्षेत्रों में बुवाई के साथ क्षेत्रवार अनुसंशित नत्रजन का उपयोग लाभदायक पाया गया है। बुवाई के समय नत्रजन का उपयोग जड़ की वृद्धि में सहायता करने के साथ ही उपलब्ध नमी का समुचित उपयोग करने में भी सहायता करता है। फलस्वरुप पौर्थों का खेत में जमाव सही होता है और उपज में वृद्धि होती है।

जिन खेतों में रबी की फसल में फॉस्फोरस उर्वरक दिया जाता है, वहां खरीफ में बाजरे की फसल में फॉस्फोरस नहीं देवें। यदि बाजरे से पहले खेत में दलहनी फसल ली गई है तो बाजरे की फसल के लिए नत्रजन की कम मात्रा की आवश्यकता रहती है। दलहनी फसल के ऊपर बाजरा लेने से भूमि में नत्रजन की उपलब्धता अधिक रहती है और कम उर्वरक नत्रजन के उपयोग से ही 20-25 प्रतिशत तक अधिक उपज प्राप्त होती है। उर्वरक की सही मात्रा का पता लगाने के लिए खेत की मिट्टी की जांच करवानी चाहिए।

मिश्रित/अन्तः शस्यावर्तनः शुष्क क्षेत्रों में फसल उत्पादन से अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए मिश्रित खेती या अन्तः शस्यावर्तन का पालन करें। मिश्रित खेती के लिए बाजरा के साथ ग्वार, मूंग, मोठ, तिल आदि को मिलाकर बोएं। अन्तः शस्यावर्तन हेतु बाजरे की 30-35 सेमी. की दूरी पर दो जुड़वा कतारों के बाद दूसरी जुड़वा कतारे 70 सेमी. की मध्य दूरी पर बोएं। दो जुड़वा कतारों के मध्य में ग्वार, मूंग, मोठ या तिल की एक कतार बोई जा सकती है। इससे न केवल कुल उत्पादन में वृद्धि होगी दलहन फसल को अन्तः शस्यावर्तन करने से नत्रजन उर्वरक की कम आवश्यकता होती है जिससे कम लागत पर अधिक लाभ मिलता है। साथ ही वर्षा, तापमान आदि की विषम परिस्थितियों में भी खेत से कुछ न कुछ उत्पादन प्राप्त होने की संभावना रहती है। विपरीत मौसम परिस्थितियों के लिए उपयुक्त योजनाः बाजरा की बुवाई के बाद फसल को प्रायः विपरीत मौसम परिस्थितियों जैसे मानसून का जल्दी लौटना, दो वर्षाओं के बीच लंबा अंतराल आदि का सामना करना पड़ता है। ये परिस्थितियाँ इस फसल के उत्पादन को प्रभावित करती है। इन परिस्थितियों में उपयुक्त फसल योजना अपनाकर शुष्क क्षेत्रो में भी अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं।

यदि बुवाई के तुरंत बाद सूखे की स्थिति हो जाती है तो आगे होनी वाली बारिश के साथ बाजरा की दुबारा बुवाई करना ही अधिक लाभदायक रहता है। यदि मानसून का आगमन देरी से हो तो जल्दी पकने वाली संकर किस्में जैसे एच. एच.बी.-67 आदि की बुवाई करनी चाहिए। बुवाई के अनुकूल वर्षा यदि जुलाई माह बीत जाने के बाद हो तो दाने के स्थान पर अधिक हरा चारा उत्पादन करने वाली किस्मों को अधिक महत्व दें तथा संकर किस्मों के स्थान पर संकुल किस्में जैसे आईसीएमवी 221, जे.बी.वी.-2, राज.-171 या देशी बाजरा बोएं जिससे पशुधन के लिए आवश्यक हरा चारा प्राप्त किया जा सके। बाजरा की रोपणी तैयार करके भी अगस्त के मध्य तक खेत में इसकी बुवाई की जा सकती है।

बुवाई के बाद यदि फसल की अच्छी बढ़वार वाले दिनों में लंबे अंतराल तक वर्षा नहीं होती है या मानसून जल्दी लौट जाता है तो प्रति हैक्टेयर पौधों का संख्या 25 प्रतिशत तक कम करके खेत में उपलब्ध नमी का समुचित उपयोग किया जा सकता है। मिश्रित फसल में यदि सूखा लंबे समय तक रहता है तो सूखे के प्रति अधिक संवेदनशील फसल को हटाने से दूसरी फसल उपलब्ध नमी से अच्छी उपज दे सकती है। फसल में फूल आने के समय यदि सूखे की स्थिति हो जाये तो सुविधानुसार एक जीवन बचाने वाली सिंचाई करनी चाहिए।

कम वर्षा की स्थिति में फसल की कतारों के बीच में कस्सी/खुरपी चलाकर मिट्टी की परत तोड़ने से खेत में मिट्टी की पलवार बन जाती है जिससे उपलब्ध नमी का वाष्पीकरण रुक जायेगा और पौधे इस नमी का समुचित उपयोग कर सकेंगे। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में कतारों के बीच में बुवाई के 15 दिन बाद नमी संरक्षण हेतु ग्वार का सूखा तूड़ा या अनुपयोगी वनस्पति (खरपतवार) जैसे धमासा आदि 3-4 टन प्रति हैक्टेयर की पलवार (स्ट्रामल्च) बनाकर अधिक पैदावार ली जा सकती है। सूखे की अवधि लंबी होने पर यदि पौर्थों की सतह से वाष्पोत्सर्जन की क्रिया को बाधित करने वाले पदार्थ (एण्टी ट्रांस्पाइरेण्ट्स) जैसे केओलिन आदि का उपयोग करके भी सूखे के असर को कम करके पौधों को कुछ समय के लिए बचाया जा सकता है।

शुष्क एवं अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में कुल वर्षा की मात्रा कम तो होती है साथ ही जो वर्षा होती हैं उसका अधिकांश भाग बहकर व्यर्थ चला जाता है। यदि उपलब्ध वर्षा जल का समुचित संरक्षण किया जाये तो खेत में फसल के लिए नमी की उपलब्धता बढ़ाकर फसल की अच्छी वृद्धि प्राप्त की जा सकती है। नमी संरक्षण के लिए बुवाई हमेशा खेत के ढलान के विपरीत दिशा में करें तथा वर्षा के पानी को खेत में मेढ़ बनाकर, फसल की कतारों के बीच में कुंड/नाली बनाकर, खेत में छोटी-छोटी क्यारियां बनाकर संरक्षित करने का प्रयास करें। इससे खेत में लंबे समय तक नमी बनी रहेगी तथा पौधों की बढ़वार अच्छी हो कर अधिक उपज प्राप्त की जा सकेगी। संभव हो तो खेत के निचले हिस्से में वर्षा के पानी को इकट्ठा करके सूखे की स्थिति में बाजरे की फसल को एक जीवन बचाने वाली सिंचाई भी की जा सकती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।