
उड़द उत्पादन की उन्नत तकनीक Publish Date : 19/04/2025
उड़द उत्पादन की उन्नत तकनीक
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु
हमारे देश में दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता आज भी चिंताजनक है। वर्तमान में दालों का उत्पादन बढ़कर लगभग 15.40 मिलियन टन हो गया है। एशिया महाद्वीप में दाल भोजन का अतिआवश्यक अंग है। मानव स्वास्थ्य के लिए दाल प्रोटीन आपूर्ति का मुख्य अवयव है। उड़द में प्रोटीन के अलावा कैल्शियम और फॉस्फोरस भी पाया जाता है जो कि मानव हड्डियों को सुदृढ़ करने और उनके संतुलित विकास में सहायक है। शाकाहारियों के लिए दाल अति महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें पाए, जाने वाले अमीनो अम्ल लायसिन की मात्रा उच्चकोटि की प्रोटीन प्रदान करती है। भारत जैसे देश में दालें व अनाज प्रोटीन एक दूसरे के पूरक है। दालों में कम वसा व कार्बाेहाइड्रेट प्रदान करने वाली दाल को बच्चों के भोजन हेतु उचित माना जाता है। उड़द की दाल अपनी उत्कृष्ट पौष्टिकता के लिए संपूर्ण भारत में बहुत लोकप्रिय है। उड़द की दाल का छिल्का दुधारु पशुओं की उत्पादकता बढ़ाने में भी सहायक होता है।
जलवायुः- सामान्यतः उड़द को गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है। इसे उष्ण कटिबंधीय जलवायु से लेकर उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु में आसानी से उगाया जा सकता है। उड़द की फसल को समुद्र तल से 1800 मीटर की ऊँचाई तक सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। वृद्धि अवस्था के दौरान अत्यधिक व बहुत कम तापमान का फसल की वृद्धि व विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। कई दिनों तक लगातार वर्षा या भारी वर्षा का भी उपज व वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उड़द की भरपूर पैदावार हेतु चमकीली धूप अच्छी मानी जाती है क्योंकि चमकीली धूप में कलियों का निर्माण अधिक होता है। उत्तर भारत में उड़द की खेती मुख्यतः खरीफ ऋतु में की जाती है, परंतु इसकी खेती बसंत ऋतु में भी आसानी से की जा सकती है। दक्षिण भारत में इसे रबी ऋतु में उगाते हैं। वर्षा ऋतु में अधिक नमी व बादलों वाले मौसम के कारण फसल पर रोगों व कीट पतंगों का. प्रकोप अधिक होता है। उड़द की अधिकांश प्रजातियां प्रकाशकाल के प्रति संवेदी होती हैं अर्थात उनमें फूल आने के लिए एक निश्चित प्रकाश अवधि की जरुरत होती है।
मृदा का चुनावः सामान्यतः उड़द की खेती सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है परंतु अच्छे जल निकास वाली दोमट या बलुई दोमट भूमि उड़द की खेती के लिए उपयुक्त मानी जाती है। भारी व काली मिट्टियों में जल निकास की व्यवस्था बहुत जरुरी है। उड़द की कुछ विशेष किस्मों को लवणीय व क्षारीय भूमियों में भी उगाया जा सकता है।
खेत की तैयारीः अच्छे अंकुरण व भरपूर पैदावार हेतु खेत को सर्वप्रथम मिट्टी पलटने वाले हल से जोतना चाहिए। तत्पश्चात दो-तीन बार कल्टीवेटर से जुताई करनी चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाएं जिससे मृदा नमी संरक्षित रहने के साथ-साथ मिट्टी भुरभुरी भी हो जाए। उत्तर भारत में ग्रीष्म व बसंतकालीन उड़द को सरसों, चना, आलू व गन्ना की कटाई के बाद भी बोते हैं। जहां तक हो सके इसे अन्न वाली फसलों के बाद उगाएं ताकि उड़द की फसल को विभिन्न रोगों व कीटों से बचाया जा सके।
बुवाई का समयः- उत्तरी एवं मध्य भारत में उड़द की बुवाई खरीफ एवं ग्रीष्म/बसंत ऋतु में की जाती है। खरीफ की फसल को जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के मध्य तक बोना चहिए। बसंतकालीन फसल को मध्य फरवरी से मध्य मार्च के बीच बोना उपयुक्त रहता है। दक्षिण व पूर्वी भारत में इसे रबी के मौसम में उगाया जाता है। उड़द की पछेती किस्में खरीफ के मौसम के लिए उपयुक्त मानी जाती हैं। जबकि शीघ्र पकने वाली प्रजातियों को जायद में बोना चाहिए। विभिन्न अनुसंधान केंद्रों पर किए गए परीक्षणों में पाया गया है कि जुलाई के पहले पखवाड़ें में बोई गई फसल से अधिकतम उपज मिलती है। बसंतकालीन उड़द की बुवाई का उचित समय मार्च का पहला पखवाड़ा है। इससे पहले या बाद में बुवाई करने पर फसल की वृद्धि व उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
उन्नतशील प्रजातियांः देश के विभिन्न अनुसंधान केंद्रों द्वारा उड़द की रोग प्रतिरोधी, अधिक प्रोटीन की मात्रा वाली, कम फसल अवधि वाली व भरपूर पैदावार देने वाली प्रजातियां विकसित की गई हैं।
इसके अलावा उड़द की डब्ल्यू.बी.यू. 109, के. यू.-300, के.यू.-301, टी.यू.-94-2, बिरसा उड़द 1, टी.पी.यू.-4, आर.बी.यू.-38, ए.के.यू-4, एल.बी.जी. 402, के.यू.-96-3, डब्ल्यू.बी.जी. 26, एन.डी.यू. 1 व वम्बन-2 प्रजातियां विकसित की गई है।
बीज की मात्रा एवं बुवाई की विधिः प्रायः किसान अपने पास रखे बीज को नई फसल की बुवाई हेतु उपयोग करते हैं। ऐसे बीज की स्वस्थता व शुद्धता अच्छी नहीं होती है। यह जमाव से लेकर फली बनने वर्षा की दशा या समय पर सिंचाई न होने की स्थिति में पौधे की जड़ें निचली सतहों से भी पोषक तत्वों तथा पानी का अवशोषण कर सकती है। सिंचित क्षेत्रों में कम जुताई करके भी इसकी बुवाई की जा सकती है।
फसल चक्रः खरीफ ऋतु में उड़द की फसल मुख्यतः मिश्रित व शुद्ध फसल के रुप में बोई जाती है। इसकोतक विभिन्न प्रकार की बीमारियों व कीटों से ग्रसित होते रहते हैं जिसके कारण उपज में कमी आ जाती है। अतः बुवाई हेतु बीज का चुनाव हर बार प्रमाणित व विश्वसनीय संस्था से करें। ग्रीष्मकालीन व बसंतकालीन उड़द की सामान्य किस्मों का 15-20 किग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है जबकि खरीफ ऋतु में बोई गई फसल के लिए 12-15 किग्रा. बीज प्रति हैक्टेयर आवश्यक होता है। बुवाई हमेशा कतारों में हल के पीछे या सीड ड्रिल द्वारा करनी चाहिए। ग्रीष्मकालीन उड़द के लिए लाईन से लाईन की दूरी 20 से 25 सेमी. तथा पौधे से पौधे की दूरी 8-10 सेमी. रखनी चाहिए। जबकि खरीफ ऋतु में पौधों की अधिक वृद्धि होने के कारण पंक्ति से पंक्ति के बीच की दूरी 30 से 45 सेमी. तथा पौधे की दूरी 10 सेमी. रखनी चाहिए।
बीज उपचारः- बीज को 1.0 ग्राम कार्बेण्डाजिम अथवा 2.5 ग्राम फफूंदीनाशक दवा धाइरम से प्रति किग्रा. बीज की दर से अवश्य उपचारित करें। इसके बाद बीज को राइजोबियम जीवाणु से उपचारित करना अति आवश्यक है। इससे फसल द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन के यौगिकीकरण प्रक्रिया पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। बीज उपचार बुवाई के 10-12 घंटे पहले कर लेना चाहिए। एक हैक्टेयर क्षेत्र में बुवाई हेतु राइजोबियम जीवाणु के दो पैकेट पर्याप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त उड़द की खेती में लागत कम करने के लिए बीजों को फास्फेट सोलूबिलाइजिंग बैक्टीरिया (पी.एस.बी.) से भी उपचारित करना चाहिए। इससे मृदा में उपस्थित उपलब्ध फॉस्फोरस की उपलब्धता बढ़ाने में मदद मिलती है। ये पैकेट सभी कृषि विश्वविद्यालयों व अनुसंधान संस्थानों में सूक्ष्मजीव विज्ञान संभाग से मुफ्त प्राप्त किए जा सकते हैं।
खाद एवं उर्वरक प्रबंधनः दलहनी फसल होने के कारण उड़द की फसल में खाद एवं उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए। उड़द की फसल के लिए नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश क्रमशः 20ः50ः40 किग्रा./हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। नाइट्रोजन, फॉस्फोरस व पोटाश की संपूर्ण मात्रा बुवाई के समय पंक्ति की बगल में 5-6 सेमी. की गहराई पर देनी चाहिए। आखिरी जुताई करने से पहले खेत में समान रुप से छिटककर मिट्टी में भलीभांति मिला देना चाहिए। जिन क्षेत्रों में सल्फर की कमी है, वहां पर 20 किग्रा. सल्फर प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें। इसके अलावा जिन क्षेत्रों में सूक्ष्म पोषक तत्वों जैसे लोहा, जस्ता व बोरोन आदि की कमी पाई जाती है वहां पर मृदा परीक्षण के आधार पर ही इन पोषक तत्वों का प्रयोग करें। किसान यदि गोबर की खाद, कम्पोस्ट या जैविक उर्वरकों का प्रयोग कर रहे हैं तो उर्वरकों की संस्तुत मात्रा में से 20 से 25 प्रतिशत तकि कम कर दें। इससे उड़द की फसल में लागत कम करने में मदद मिलेगी।
सिंचाई प्रबंधनः ग्रीष्म व बसंतकालीन फसल सिंचित क्षेत्रों में ही उगाई जाती है। जहां पर मौसम के अनुसार उड़द की फसल में 10-15 दिनों के अंतराल पर 4-6 सिंचाईयों की आवश्यकता पड़ती है। पहली सिंचाई बुवाई के 20 से 25 दिनों बाद करनी चाहिए। खरीफ ऋतु में उगाई जाने वाली फसल को सिंचाई की कम आवश्यकता पड़ती है। खरीफ ऋतु की फसल मानसून पर निर्भर करती है। इस मौसम में यदि लंबी अवधि तक वर्षा न हो तो बीच में एक सिंचाई फलियां बनने की अवस्था पर करनी चाहिए। अधिक वर्षा या निचले क्षेत्रों में वर्षा के पानी को इकट्ठा न होने दें अन्यथा फसल के मरने का अंदेशा रहता है। अधिक वर्षों वाले क्षेत्रों में बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए जिससे मेड़ों के बीच बनी नालियां जल निकास का काम कर सकें।
विरलीकरणः उड़द की फसल में पौधों का विरलीकरण अतिआवश्यक है। उड़द की अधिक उपज प्राप्त करने के लिए प्रति इकाई क्षेत्र पौधों की वांछित संख्या बनाए रखना बहुत जरुरी है। बुवाई के 18-20 दिनों बाद घने पौधों को निकाल कर पौधों की दूरी 10 सेमी. कर देनी चाहिए। उत्तर भारत में उड़द की अधिकतम पैदावार के लिए 2.5 से 3.0 लाख पौधे प्रति हैक्टेयर आवश्यक है। खरीफ में उगाई गई फसल में पौधों की संख्या बसंतकालीन फसल की तुलना में कम होती है क्योंकि खरीफ ऋतु में पौधों की अधिक वृद्धि होती है।
खरपतवार नियंत्रणः उड़द की फसल को खरपतवारों से मुक्त रखने के लिए बुवाई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करना अत्यंत आवश्यक है। दूसरी निराई-गुड़ाई आवश्यकतानुसार बुवाई के 40-45 दिन बाद करनी चाहिए। प्रायः फसल की वृद्धि के साथ ही कई प्रकार के चौड़े व संकरी पत्ती बाले खरपतवार उगने लगते हैं जिनमें सांवा, बांद्रा, दूब, मोथा, हिरनखुरी, जंगली चौलाई, हजारदाना आदि प्रमुख हैं। ये फसल की वृद्धि और उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं जिससे किसान को अपनी फसल का अपेक्षित लाभ नहीं मिल पाता है। आजकल घास व चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों को नष्ट करने के लिए बहुत से शाकनाशी बाजार में उपलब्ध हैं। इसके लिए बुवाई के बाद परंतु अंकुरण से पूर्व पेंडोमिश्रेलिन नामक शाकनाशी की 250 ग्राम सक्रिय तत्व को प्रति हैक्टेयर की दर से 500-600 लीटर पानी में छिड़काव करने पर सभी प्रकार के खरतपवारों को नष्ट किया जा सकता है या फ्लूक्लोरालिन (45 ई.सी.) नामक शाकनाशी की 2.5 लीटर मात्रा को 600-700 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के पहले प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि पर छिड़काव करके मिट्टी में अच्छी तरह मिला दें या एलाक्लोर की 4 लीटर मात्रा को 700-800 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के बाद परंतु अंकुरण से पूर्व छिड़काव करें।
कीट एवं उनका नियंत्रणः उड़द की फसल में लगने वाले कीटों में बिहार हेयरी केटरपिलर, फली छेदक, सौगदार केटरपिलर, हरा तेला व सफेद मक्खी प्रमुख हैं। बिहार हेयरी कैटरपिलर के लारवा व वयस्क कीट फसल को हानि पहुंचाते हैं। कीट फसल की पत्तियों और कोमल भागों को खा जाते हैं। इसकी रोकथाम हेतु 0.5 प्रतिशत एंडोसल्फान का छिड़काव करना चाहिए। फली छेदक की रोकथाम के लिए एण्डोसल्फान 1 लीटर या कार्बारिल 50 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 1 किग्रा./हैक्टेयर का छिड़काव करें। इसके लिए 1000 लीटर पानी प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होता है। साँगदार केटरपिलर भी फसल को बहुत अधिक नुकसान पहुंचाती है। पूर्ण वयस्क कीट 3-4 इंच लंबा, गहरे भूरे रंग का तिरछे बालों वाला होता है। इसके अलग-बगल में लाल-भूरे धब्बे होते हैं। इसकी पूंछ की तरफ मुड़े हुए सींग से होते हैं। इसके प्रकोप से पौधे पत्तियों रहित हो जाते हैं। इसके नियंत्रण हेतु मैलाथियान (50 ई.सी.) की 1.5 लीटर को 600 लीटर पानी में मिलाकर प्रति हैक्टेयर छिड़काव करें। सफेद मक्खी की रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफोस की 1.0 लीटर मात्रा को 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से छिड़काव करें। प्रभावी नियंत्रण के लिए उपयुक्त दवाओं का 15 दिन के अंतराल पर दो-तीन बार छिड़काव करें।
रोग एवं उनका नियंत्रणः-
सर्वाेस्पोरा पर्ण रोगः यह एक कवकजनित रोग है जो सर्वाेस्पोरा कैनेसेन्स नामक कवक से लगता है। यह रोग उड़द उगाने वाले सभी प्रांतों मुख्य रूप से असम, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में व्यापक रुप से फैलता है। रोगग्रस्त पौधों की पत्तियों पर भूरे रंग की अर्थवृत्ताकार से अनियमित 2-6 मि.मी. व्यास की चित्तियां पत्तियों पर अधिक तथा फलियों पर कम बनती हैं। रोग का अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां झुलस जाती हैं। इस रोग की रोकथाम के लिए रोग प्रतिरोधी उन्नतशील किस्मों जैसे पंत उड़द-31, सरला, उत्तरा, आजाद उड़द 1, नरेन्द्र उड़द 1, विरसा उड़द 1, टी.यू.-94-2, के.यू.-96-3, के.यू.-300, ए.के. यू-4, टी.पी.यू.-4, डब्ल्यू.बी.यू. -108 और डब्ल्यू. बी.यू.-109 को अपने क्षेत्र के अनुसार लगाएं। रोग से बचने के लिए उत्तर भारत में उड़द की बुवाई 15 जुलाई के आसपास ही करें। इसके अलावा फफूंदनाशी कार्बेन्डाजिम से बीज उपचारित करके बोएं।
काली फफूंदः यह रोग सुडोसकर्काेस्पोरा कुएंटा नामक कवक द्वारा फैलता है। इसमें पत्तियों की ऊपरी सतह पर बैंगनी लाल रंग की चित्तियां बनती हैं जिनका मध्य भाग भूरे रंग का होता है। ये चित्तियां पुरानी फलियों पर ज्यादा पाई जाती हैं। अधिक धब्बों के कारण फलियों का रंग काला हो जाता है। रोग की उग्र अवस्था में बीज भी संक्रमित हो जाता है। संक्रमित बीज सिकुड़ कर काला पड़ जाता है। रोग से फसल का बचाव सर्वाेस्पोरा (पर्णरोग) की भांति करें।
पीला मौजेक रोगः- उड़द की फसल में यह सबसे अधिक लगता है जो पीला मौजेक वाइरस से लगता है। इस रोग का फैलाव सफेद मक्खी द्वारा होता है। रोग के प्रथम लक्षण बुवाई के 15-20 दिनों बाद पौधों की पत्तियों पर पीले गोलाकार दाने के रुप में दिखाई पड़ते हैं। ये धब्बे एक साथ मिलकर तेजी से फैलते हैं, जो बाद में पत्तियों को बिल्कुल पीला कर देते हैं। ये पत्तियां धीरे-धीरे ऊतकक्षयी होकर सूख जाती हैं। ऐसे पीले पौधे खेत में एकदम स्पष्ट नजर आते हैं जिन्हें दूर से ही देखा जा सकता है। रोगग्रस्त पौधों में बहुत कम व छोटी फलियां बनती हैं। रोगग्रस्त फलियों का बीज सिकुड़ा हुआ तथा मोटा व छोटा होता है। इसकी रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्में उगानी चाहिए। उत्तरी भारत में उड़द की बुवाई 15 जुलाई के आसपास करें। रोगी पौधों और खरपतवारों को उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए। यह रोग के प्रभाव को कम करने का सबसे सरल व सुगम उपाय है। जैसे ही खेत में पीला मौजेक संक्रमित पौधा नजर आए उन्हें तुरंत उखाड़कर मिट्टी में दबा दें या जला दें। यह कार्य नियमित रुप से करें।
मृदुरोमिल आसिताः इस रोग में पत्तियों व शाखाओं पर सफेद चूर्ण की तरह कवक की वृद्धि हो जाती है। बाद में पत्तियां गिर जाती हैं। इसकी रोकथाम हेतु 6-7 किग्रा. घुलनशील गंधक या 250 मिली. डायनोकेप (48 ई.सी.) का घोल पानी में मिलाकर रोगग्रस्त पौधों पर करें। यह छिड़काव दो-तीन बार 10 दिनों के अंतराल पर करें।
जड़ विगलन (चारकोल रोट:- यह एक कवकजनित रोग है जो मैक्रोफोमिना फैजियोलाई नामक कवक से फैलता है। इसमें पौधे की पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है। रोगग्रस्त पौधों के तने व जड़े भी गल जाती हैं। रोग की रोकथाम के लिए बीज को बुवाई से पूर्व 2.5 ग्राम केप्टान या 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम प्रति किग्रा. बीज की दर से उपचारित करें।
कटाई मड़ाईः- खरीफ ऋतु की फसल में जब अधिकांश फलियां पक जाएं तो फसल की कटाई कर लेनी चाहिए। बसंत व ग्रीष्मकालीन फसल में जब 70-80 प्रतिशत फलियां पक जाएं तो फसल काट लेनी चाहिए। सामान्यतः उड़द की फलियां एक साथ पक जाती हैं। कटाई उपरांत फसल को 5-6 दिन तक खलिहान में सूखने के लिए खुला छोड़ देना चाहिए।
उपज व भंडारणः अच्छे फसल प्रबंधन के अंतर्गत खरीफ ऋतु में बोई गई उड़द की शुद्ध फसल से 12-15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज मिल जाती है। इसके अलावा उड़द की फसल से 25-30 क्विंटल सूखा भूसा भी प्रति हैक्टेयर प्राप्त हो जाता है। बीज का भंडारण अच्छी तरह से सुखा कर ही करना चाहिए। अन्यथा बीजों में कीड़े लगने का भय रहता है। भंडारण के समय बीज में 8-10 प्रतिशत नमी होनी चाहिए।