जावा सिट्रोनेला खेती से किसान की आय      Publish Date : 11/03/2025

            जावा सिट्रोनेला खेती से किसान की आय

                                                                                                          प्रोफेसर आ. एस. सेंगर एवं डॉ0 कृशानु

हमारे देश में सिट्रोनेला की खेती असोम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा, केरल तथा मध्य प्रदेश आदि राज्यों में की जा रही है। विश्व में भारत, चीन, श्रीलंका, ताईवान, ग्वाटेमाला और इंडोनेशिया इत्यादि देशों में इसकी खेती व्यवासायिक तौर पर की जा रही है, इस कारण भारत सहित अन्य देशों में इसकी व्यवासायिक स्तर पर खेती में वृद्धि हुई है।

                                             

वर्तमान समय में भारत के विभिन्न भागों में सिट्रोनेला की व्यापक स्तर पर सफलतापूर्वक खेती की जा रही है और भविष्य में इसके और अधिक प्रसार की संभावनाएं हैं। भारत में लगभग 8500 हे. क्षेत्रफल में इस फसल की बुआई की जाती है। उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में देश में होने वाली कुल पैदावार का 80 प्रतिशत भाग उत्पादन होता है। वर्तमान समय में सिट्रोनेल तेल की कीमत लगभग 1000-1200 रूपये तथा बुआई के प्रथम वर्ष में 150-200 कि. ग्रा. तथा दूसरे से पांचवें वर्ष तक 200-300 कि. ग्रा. की पैदावार प्रति हे. क्षेत्र से प्राप्त होती है। इस फसल की लागत पर खर्च बहुत ही कम होता है। इससे किसान का शुद्ध लाभ लगभग 50-70 प्रतिशत तक होता है। इस फसल में कीट व बीमारियों का प्रकोप भी बहुत कम होता है। अतः जावा सिट्रोनेला की उन्नत खेती से किसानों की आय परंपरागत फसल से हटकर कहीं अधिक हो सकती है।

पिछले साल माननीय प्रधानमंत्री द्वारा सीएसआईआर के स्थापना दिवस पर जावा सिट्रोनेला के उन्नत प्रभेद जोर लैब सी-5 को देश के किसानों के लिए जारी किया गया था। इस किस्म की खास बात यह है की इसका तेल प्रतिशत औसत 1.20 प्रतिशत है।

उपयोगी एवं रासायनिक संघटक

जावा सिट्रोनेला के तेल के प्रमुख रासायनिक घटक निम्नलिखित होते हैं:-

सिट्रोलेल, सिट्रोनिलोल, जिरेनियाल, सिट्रोनिलेल एसिटेट और एलिमसिन इत्यादि। इसके तेल में 32 से 45 प्रतिशत स्ट्रोनिलेल, 12 से 18 प्रतिशत जिरेनियाल, 11 से 15 प्रतिशत सिट्रोनिलोल, 3.8 प्रतिशत जिरेनियल एसिटेट, 2 से 4 सिट्रोनेलाइल एसिटेट, 2 से 5 प्रतिशत एलमिसीन तथा अन्य रासायनिक घटक पाए जाते हैं। इन रासायनिक घटक कोण का उपयोग साबुन और क्रीम जैसे सौन्दर्य प्रसाधनों के उत्पादन में किया जाता है। औडोमॉस एवं एंटीसेप्टिक क्रीमों के उत्पादन में भी इनका उपयोग किया जाता है। सुगंधित रसायनों जैसे जिरेनियाल तथा हाइड्रोक्सी सिट्रोनेलोल के निर्माण में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

भूमि तथा जलवायु

जावा सिट्रोनेला की खेती के लिए दोमट तथा बलुई दोमट मिट्टी उपयुक्त है। इसका पी.एच. मान 6 से 7.5 के बीच उपयुक्त माना जाती है। अम्लीय मृदा, जिसका पी.एच. मान 5.8 तक हो तथा क्षारीय मृदा जिसका पी.एच. मान 8.5 तक हो, ऐसे क्षेत्र में भी इस फसल को सफलतापूर्वक लिया जा सकता है। सिट्रोनेला की खेती के लिए समशीतोष्ण एवं उष्ण जलवायु अच्छी मानी जाती है। क्षेत्र का तापमान 9 से 350 सेल्सियस के बीच हो तथा जहाँ वर्ष भर 200 से 250 सें.मी. बारिश एवं आर्द्रता 70 से 80 प्रतिशत तक हो, वहां इस फसल को सफलतापूर्वक लिया जा सकता है।

खेत की तैयारी

                                                       

सिट्रोनेला बहुवर्षीय फसल है। इसे एक बार लगा देने के उपरांत पांच वर्षों तक अच्छी पैदावार देती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि खेत की तैयारी अच्छे से करनी चाहिए। इसके लिए दो-तीन बार आड़ी-तिरछी (क्रॉस) तथा गहरी जुताई करनी चाहिए। इसमें गोबर की अच्छी तरह सड़ी हुई खाद अथवा कम्पोस्ट खाद या 20 से 25 टन गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद प्रति हे. खेत जुताई के समय डालनी चाहिए। फसल को दीमक आदि से सुरक्षित रखने की दृष्टि से अंतिम जुताई के समय लगभग 20 कि.ग्रा. 2 प्रतिशत मिथाइल पेराथियान पाउडर प्रति हे. डालना चाहिए। रासायनिक खाद की डोज भी जुताई में देनी आवश्यक है। यह डोज नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश (एनपीके) क्रमशः 160, 50, 50 कि. ग्रा. प्रति हे. की दर से देनी चाहिए।

बुआई हेतु बीज

जावा सिट्रोनेला की बुआई स्लिप्स से की जाती है। स्लिप्स बनाने के लिए एक वर्ष अथवा उससे पुरानी फसल से जूट्ठों को निकालकर उनमें से एक-एक स्लिप्स अलग-अलग कर ली जाती है। इसके बाद स्लिप्स के ऊपर के पत्ते को काटकर तथा नीचे के सूखे हुए पत्तों को अलग कर दिया जाता है। इस प्रकार से स्लिप्स तैयार हो जाती है। स्लिप्स लगाते समय ध्यान देना आवश्यक है कि इसका जमाव 80 प्रतिशत तक ही हो पाता है। लगभग 20 प्रतिशत स्लिप्स मर जाती है। इसलिए खाली बची हुई जगह को दोबारा नई स्लिप्स से भर देना चाहिए।

बुआई विधि

सिट्रोनेला की बुआई के लिए जूलाई-अगस्त अथवा फरवरी-मार्च का समय उपयुक्त माना जाता है। स्लिप्स को खेत में 5 से 8 इंच गहरा लगाया जाता है। पौधों से पौधों के बीज की दूरी 60 Û 45  सें.मी. पर लगाना उपयुक्त है। बुआई के उपरांत खेत में पानी छोड़ देना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में जल भराव न हो। प्रायः बुआई से लगभग 2 सप्ताह के भीतर स्लिप्स से पत्तियां निकलनी शुरू हो जाती है।

सिट्रोनेला की फसल हेतु सिंचाई

                                            

जावा सिट्रोनेला की जड़ें ज्यादा गहरी न होने तथा शाकीय प्राकृत की फसल होने के कारण फसल को जल की काफी मात्रा में आवश्यकता होती है। सिंचाई की आवश्यकता मिट्टी की प्रकृति पर निर्भर करती है। प्रायः गर्मी में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर तथा सर्दियों में 20-30 दिनों के अंतराल पर तथा सिंचाई करना, फसल के लिए लाभप्रद होगा। इस प्रकार फसल को वर्ष भर में औसतन 10-12 सिंचाई की आवश्यकता होती है। वर्षा होने पर सिंचाई नहीं करनी चाहिए।

फसल की निराई-गुड़ाई

सिट्रोनेला की फसल में खरपतवार को नियंत्रित करना आवश्यक होता है। विशेष रूप से फसल की रोपाई के प्रथम 30 दिनों से 45 दिनों की अवधि में फसल में खरपतवार नहीं पनपने देना चाहिए। अतः प्रथम बार में हाथ से निराई-गुड़ाई करना आवश्यक है। इसके उपरांत फसल की प्रत्येक कटाई के उपरांत हाथ से गुड़ाई करनी चाहिए। रासायनिक तौर पर खरपतवार को नियंत्रित करना आर्थिक रूप से सही होता है। इसके लिए खरपतवार नियंत्रण के लिए 200 लीटर पानी के साथ 250 ग्राम ओक्सीफ्लूरोलीन का स्प्रे करना चाहिए। स्प्रे पौधों की बुआई से पहले करना चाहिए।

जावा सिट्रोनेला का महत्व

जावा सिट्रोनेला अथवा सिट्रोनेला का वैज्ञानिक नाम सिम्बोपोगन बिंटेरियनस है। यह पोयेसी कुल की एक बहुवर्षीय घास है, जिसके पत्तों से तेल निकाला जाता है। यह घास लेमनग्रास (नींबू घास) तथा जामारोज जैसी ही है। परंतु इसके जूट्ठे अपेक्षाकृत ज्यादा भरे-मोटे तथा फैले होते हैं। इसकी पत्तियां जामरोज तथा लेमनग्रास की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा चौड़ी तथा स्लिप्स भी मोटी होती हैं।

जावा सिट्रोनेला की प्रमुख प्रजातियाँ

                                               

जोर लेब सी-5:- यह जावा सिट्रोनेला की सबसे नवीनतम किस्म है। इसे उत्तर-पूर्व विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी संस्थान, जोरहाट, असोम द्वारा सन 2016 में विकसित किया गया है। इस किस्म का जननद्रव्य पंजीकरण भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली में पंजीकरण संख्या आईएनजीआर-16021 के तहत हो चुका है। इसकी खेती मुख्यतया तेल के लिए जाती है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 1.20 प्रतिशत है। इसमें सिट्रोनेल की मात्रा लगभग 35 प्रतिशत है। बीएसआई मानक के अनुसार सिट्रोनिलेल की मात्रा 30 प्रतिशत से ज्यादा होनी चाहिए।

जोर लैब सी-2:- यह भी एक पुरानी किस्म है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 0.90 प्रतिशत है।

बायो-13 (बीआईओ-13):- यह सबसे पुरानी किस्म है। इसमें तेल की मात्रा लगभग 0.80 से 0.90 प्रतिशत है। इसमें सिट्रोनिलेल की मात्रा लगभग 35-38 प्रतिशत है।

सिट्रोनेला तेल की बढ़ती मांग

                                          

जावा सिट्रोनेला एक व्यवासायिक फसल होने के साथ-साथ भूमि सुधारक फसल भी है। उत्तर-पूर्वी राज्यों एवं पश्चिम बंगाल तथा देश के ऐसे क्षेत्र जहाँ भूमि की कम उर्वरता है, ऐसे क्षेत्रों के लिए यह काफी लाभदायक है। खासकर चाय बागानों को पुनर्जीवित करने में भूमि सुधारक के रूप में जावा सिट्रोनेला की खेती की जाती है। यह फसल कम लागत में अधिक से अधिक मुनाफा देती है। सिट्रोनेला के तेल की मांग बढ़ने और इसकी ज्यादा खेती होने से किसानों की निर्भरता परंपरागत फसलों से हटकर व्यवसायिक फसल पर होगी। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी।

फसल के प्रमुख रोग एवं कीट

सिट्रोनेला की फसल में होने वाले प्रमुख रोग एवं हानिकारक कीट-पतंगे निम्नलिखित हैं -

तना छेदक कीट

तना छेदक कीट का प्रकोप जावा सिट्रोनेला की फसल पर प्रायः अप्रैल से जून तक महीने में अधिक होता है। ये कीट सिट्रोनेला के तने से लगी पत्तियों पर अंडा देती हैं और इनसे सूंडी निकलती है। इन अंडों से वह तने के मुलायम भाग से पौधे में प्रवेश करती है। इससे पौधों की वृद्धि रूक जाती है। सिट्रोनेला के खेत में इस बीमारी के फलस्वरूप पत्तियां सूखी हुई दिखाई देती हैं। इसको निकालने पर उनके निचले भाग में सड़न तथा छोटे-छोटे कीट भी दिखाई देते हैं। जिसे डेड हार्ट कहा जाता है। इस कीट से छुटकारा पाने के लिए निराई-गुड़ाई के उपरांत 10 से 15 किग्रा. प्रति हे. की दर से कार्बोफ्यूरॉन 3-जी का भुरकाव करना लाभदायक है।

पत्तों का पीला पड़ना (लीथल येलोइंग)

पत्तियों का पीला पड़ना अथवा लीथल येलोइंग इस फसल की एक प्रमुख समस्या है। इसके समाधान के लिए फेरस सल्फेट तथा अंतःप्रवाही कीटनाशकों का छिड़काव किया जाना आवश्यक है।

लीफ ब्लास्ट अथवा झुलसा रोग

                                                          

प्रायः बरसात के मौसम में सिट्रोनेला के पौधों पर कुरवुलेरिया एंडोपोगनिस नाम फफूंदी का प्रकोप होता है। इससे पौधे के पत्ते सूखने के साथ-साथ काले पड़ जाते हैं। इससे बचाव के लिए फफूंदीनाशक डायथेन एम-45 का छिड़काव 20 से 25 दिन के अंतराल पर किया जाना चाहिए।

फसल की कटाई

सिट्रोनेला की फसल एक बार लगा देने के पश्चात् पांच वर्षों तक इससे पर्याप्त तेल उत्पादन होता रहता है। बाद में धीरे-धीरे तेल की मात्रा घटने लगती है। बुआई के लगभग 120  दिनों में यह फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद 90 से 120 दिनों में फसल की अगामी कटाईयां भी ली जा सकती हैं।

इस प्रकार लगातर 5 वर्षों तक प्रतिवर्ष 3 से 4 फसलें ली जा सकती हैं। प्रायः तेल की मात्रा पहले वर्ष की तुलना आगामी वर्षों में काफी बढ़ जाती है, हालाँकि तीसरे, चौथे तथा पांचवें वर्ष में यह लगभग एक जैसी ही रहती है। पांचवें वर्ष के बाद तेल की मात्रा घटने लगती है। फसल की कटाई भूमि से लगभग 15 से 20 सें.मी. ऊपर से करनी चाहिए।

पत्तियों का आसवन

                                                      

सिट्रोनेला की पत्तियों से वाष्प आसवन अथवा जल वाष्प आसवन विधि द्वारा सुगंधित तेल निकाला जाता है। प्रायः 3 से 4 घंटे से पत्तियों के बैच की आसवन की प्रक्रिया पूरी हो जाती है। यह आसवन उसी आसवन संयंत्र से किया जाता है, जिससे अन्य एरोमेटिक पौधे का तेल निकाला जाता है।

उपज एवं आमदनी

सिट्रोनेला की फसल से वर्ष भर में औसतन चार कटाइयों में लगभग 150 से 250 किग्रा. प्रति हे. सुगंधित तेल उत्पादित होता है। इस प्रकार यह फसल प्रथम वर्ष में लगभग 80,000 रूपये प्रति हे. का शुद्ध लाभ देती है, जबकि आगामी वर्षों से लाभ की मात्रा लगभग दोगुनी (160,000) हो जाती है या इससे अधिक भी हो सकती है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।