
सरसों के सफेद रतुआ रोग का प्रबन्धन कैसे करें Publish Date : 15/02/2025
सरसों के सफेद रतुआ रोग का प्रबन्धन कैसे करें
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 वर्षा रानी
सरसों भारत की एक महत्वपूर्ण और प्रमुख तिलहनी फसल है और किसानों के लिए यह एक नकदी फसल है। सरसों का तेल, मसाले और पशुओं के लिए एक लाभकारी उत्पाद माना जाता है। सरसों की खेती करने के दौरान किसानों को अनेक प्रकार की समस्याओं का समाना करना पड़ता है, जिनमें से सफेद रतुआ सरसों की फसल की एक प्रमुख समस्या है। सरसों की यह बीमारी एक फंगस के कारण होती है जिसे Albugo candida के नाम से जाना जाता है। सफेद रतुआ बीमारी के चलते किसानों को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ सकता है, क्योंकि यह रोग सीधे सरसों के उत्पादन को प्रभावित करता है।
हालांकि, यदि किसान सही समय पर सवाधानी बरतें और सही उपाय अपनाए तो इस रोग से काफी हद तक बचाव कर पाना सम्भव होता है। इन उपयों में, उचित समय पर बुआई, बीज का उपचार, उर्वरकों का संतुलित उपयोग, जल भराव की समस्या का उचित समाधान और अंतरवर्ती फसल चक्र आदि को अपनाकर किसान सरसों की फसल को इस रोग के प्रकोप से बचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त कृषि वैज्ञानिकों की सलाह का पालन करना भी महत्वपूर्ण होता है। किसानों को सरसों की फसल में होने वाले नुकसान से बचने के लिए इस रोग के बारें में उचित जानकारी और समझ रखना भी बहुत आवश्यक होता है।
सफेद रतुआ रोग के लक्षण
जब सफेद रतुआ नामक बीमारी का आक्रमण सरसों की फसल पर होता है तो सबसे पहले पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर हल्के पीले या सफेद रंग के धब्बे दिखाई देने लगते हैं। इस रोग के चलते सरसों के पौधों की भोजन बनाने की क्रिया (Photosynthesis) काफी हद तक कम हो जाती है, जिससे फसल के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। रोग का प्रकोप अधिक होने की दशा में सरसों की न केवल पत्तियां बल्कि उसके डंठल और कलियों पर भी सफेद रंग के चकत्ते दिखाई देने लगते हैं। रोग के कारण फसल की वृद्वि में रूकावट होने के साथ ही पौधों की ग्रोथ भी सही तरीके से नही हों पाती है।
रोग से बचाव के उपाय
सरसों की बुआई करने से पहले और बुआई करते समय यदि किसान कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाते हैं तो वह इस रोग के प्रकोप से अपनी फसल को बचा सकते हैं। इसके लिए सबसे पहले तो किसानों को फसल की बुवाई समय से ही करनी चाहिए, क्योंकि समय पर बुआई करने से यह रोग नियंत्रित हो सकता है। इसके साथ ही किसी Fungicide दवा से बीज का उपचार करना भी आवश्यक होता है, क्योंकि इससे बीज के अंदर छिपे Fungus के रोगाणु मर जाते हैं जिससे रोग का फलाव नही होता है।
इसके साथ ही किसान बीज का जैविक उपचार भी कर सकते हैं और साथ ही संतुलित मात्रा में उर्वरकों का प्रयोग करने से भी रोग का प्रभावी बचाव होता है। रोग से बचाव के लिए खेत में जल भराव की समस्या को समाप्त करने के लिए उचित जल निकासी का प्रबन्ध भी होना अतिआवश्यक है। खेत में जलभराव होने से सफेद रतुआ के लिए अनुकूल वातावरण बनता है। इसके अतिरिक्त खेत से लगातार एक ही फसल के लेने से भी रोग का जोखिम बढ़ जाता है। अतः किसानों को चाहिए कि वह अंतरवर्ती फसल चक्र का पालन करना चाहिए।
रोग नियंत्रण के रासायनिक उपाय
मौसम परिवर्तन के इस दौर में सरसों में रोगों का फैलाव होता है और विशेषरूप से तना गलन और सफेद रतुआ जैसे रोग फसल के उत्पादन को प्रभवित कर सकते हैं। अतः इन रोगों के लक्षण शुरूआती चरणों में ही पहिचानने और उचित उपचार करने की आवश्यकता होती है। सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राकेश सिंह सेंगर के अनुसार, वर्तमान मौसम की स्थितियाँ इन रोगों के विकास के अनुकूल हैं, जिसके प्रति किसानों को सचेत रहने की आवश्यकता है।
सफेद रतुआ रोग की पहचान होने के बाद 600 से 800 ग्राम मैन्कोजेब (डाईथेन-M45) का 250 से 300 लीटर पानी में घोंल बनाकर प्रति एकड़ की दर से छिड़काव करना उचित रहता है। 15 दिन के बाद इसे दोहराना चाहिए और फसल को बचाने के लिए इसके 2 से 3 छिड़काव करने चाहिए।
कृषि वैज्ञानिकों की सलाह
कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि सफेद रतुआ रोग का फैलाव सर्द और नम वातावरण में अधिक होता है। अतः इससे बचाव के लिए किसानों को अपने खेत की निरंतर निगरानी करनी चाहिए। यदि मौसम ठंड़ा और नम है तो यह सफेद रतुआ रोग के अनुकूल वातावरण को तैयार करता है। ऐसे में किसानों को रोग के लक्षण शीघ्रता से पहचानने और समझने चाहिए। यदि रोग के लक्षण पहचानने में कोई समस्या है तो वह कृषि विश्वविद्यालय अथवा अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केन्द्र से भी सर्म्पक कर सकते हैं।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।