गेहूँ की बीमारी लूज स्मट के प्रबंधन के उपाय      Publish Date : 28/01/2025

                गेहूँ की बीमारी लूज स्मट के प्रबंधन के उपाय

                                                                                                                              प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी

भारत में गेहूँ की फसल को रबी के मौसम की एक प्रमुख फसल मानी जाती है और यही कारण है कि किसान की फसल से उत्तम उत्पादन की आशा रखते हैं। हालांकि मौसम में आने वाले बदलाव और अन्य पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते विभिन्न प्रकार के रोग गेहूँ की फसल को प्रभावित कर सकते हैं।

                                                              

विशेष रूप से गेहूँ की फसल में बालियों के निकलने की अवस्था में यह बीमारियां गेहूँ की बालियों और बालियों के अंदर बनने वाले दानों को बहुत अधिक प्रभावित कर सकती हैं इन्हीं सब बीमारियों में से एक है लूज स्मट (Loose Smut) जो गेहूँ फसल के लिए बहुत खतरनाक हो सकती है।

लूज स्मट बीमारी के चलते गेहूँ की बालियों के दाने खराब हो जाते है और उनमें से दानों के स्थान पर काले रंग पाउडर निकलने लगता है, इस बीमारी के कारण गेहूँ के उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। हालांकि, लूज स्मट गेहूँ की एक गम्भीर बीमारी होती है, परन्तु यदि इस बीमारी की पहचान समय रहते कर ली जाए और उसका उचित उपचार किया जाए तो किसान भाई अपनी गेहूँ की फसल को इस बीमारी के प्रकोप से बचाकर अच्छा उत्पादन भी प्राप्त कर सकते हैं।

लूज स्मट नामक बीमारी के प्रबन्धन के लिए किसान भाई बीजोपचार, उचित फंगीसाइड का प्रयोग और सबसे महत्वपूर्ण रोगरोधी किस्मों का चयन करने के जैसे उपायों को अपनकर इस बीमारी से बचा जा सकता है। इसके साथ ही किसानों को अपनी फसल की निरंतर देखभाल करनी चाहिए और किसी भी बीमारी का सामना करने के लिए उन्हें हरपल तैयार रहने की आवश्यकता होती है। इसके अलावा पूरी जानकार रखना बहुत जरूरी है, जिससे कि वह इस बीमारी की पहचान करके उचित उपाय कर अपनी फसल को स बीमारी से बचा सकें।

लूज स्मट बीमारी क्या है

लूज स्मट, गेहूँ की फसल का एक फफूंद जनित रोग होता है, जिसका वैज्ञानिक नाम Ustilago Segetum है। यह फफूंद गेहूँ के दानों के अंदर जाकर उन्हें पूरी तरह से नष्ट कर देता है। इस रोग के लते गेहूँ के दानों में काले रंग का पाउडर बनने लगता है और इससे दानों की गुणवत्ता पूरी तरह से खराब हो जाती है। इस रोग का प्रभाव विशेष रूप से गेहूँ में फूल आने के बाद अधिक देखा जाता है, जब फसल में नमी एवं तापमान दोनों ही इस रोग की वृद्वि के लिए अनुकूल होते हैं। आमतौर पर इस रोग का प्रभाव 20 से 30 प्रतिशत तक देखा जाता है।

इस रोग के कारण गेहूँ के उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। इस रोग में वायु के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक फैलनें की क्षमता होती है। अतः यदि इस रोग का प्रबन्धन समय रहते ही नही किया जाए यह रोग पूरी फसल को भी सवंमित कर सकता है।

लूज स्मट रोग के लक्षण

                                                              

किसान भाईयों, लूज स्मट रोग के लक्षणों की पहचान करना बहुत ही आसान होता है। यह रोग विशेष रूप से गेहूँ में फूलों में दिखाई देती है। जब गेहूँ की बालियां फूलने लगती हैं तो उस समय फसल की निगरानी करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इस रोग के लक्षण भी उस समय ही दिखाई देते हैं। बालियों के विकास के र्दाैरान बालियों में दानों के स्थान पर काले रंग का पाउडर बनने लगता है जो कि फफूंद के बीजाणुओं से युक्त होता है। यह बीजाणु वायु के माध्यम से फैलकर फसल के अन्य पौधों को भी सवंमित कर सकते हैं।

लूज स्मट बीमारी के कारण

गेहूँ की फसल का लूज स्मट रो मुख्य रूप से Ustrilago segetum नामक फफूंद के कारण होता है। यह फफूंद पहले से ही सवंमित बीज के माध्यम से फैलती है और जब यह रोगग्रस्त बीज भूमि में बोये जाते हैं तो यह बीज के अंदर प्रविष्ट हो जाती है। यह रोग पूरी की पूरी फसल को भी प्रभवित कर सकता है। अतः बीमारी को रोकने वाले कारकों का प्रबन्धन करते हुए इसका प्रबन्धन करने का एक प्रभावी तरीका है।

लूज स्मट रोग से बचाव और इसका उपचार

                                                                    

गेहूँ में होने वाला यह रोग 25 से 30 प्रतिशत तक फसल को हानि पहुँचा सकता है और इससे फसल का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता अत्याधिक प्रभावित हो सकती है। इस रोग से बचने के लिए किसानों को कुछ विशेष कदम उठानें होते है जिनका विवरण कुछ इस प्रकार से है-

गेहूँ की फसल को इस रोग से बचाने के लिए सबसे पहला और महत्वपूर्ण उपाय यह है कि बीज उपचार सही तरीके से किया जाए, इससे इस रोग की सम्भावनाएं बहुत कम हो जाती है। गेहूँ के बीज उपचार के लिए Pseudomonas fluoresens का प्रयोग किया जा सकता है। इसके लिए बीजाई के समय कॉपर र्ऑिक्सक्लोराइड अथवा मैन्कोजेब जैसे फंगीसाइड्स का उपयोग भी किया जा सकता है। इसके साथ ही इस रोग के प्रति प्रतिरोधी किस्मों का चयन भी महत्वपूर्ण होता है।

  लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल   कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।