गन्ना किसानों की बढ़ती कठिनाईयाँ      Publish Date : 04/07/2023

                                                        गन्ना किसानों की बढ़ती कठिनाईयाँ

                                                        

पिछले वर्ष बजट-सत्र के दौरान केन्द्रीय कृषि मंत्री के द्वारा भी संसद में यह स्वीकार किया गया कि एक किसान परिवार आमदनी रू0 6,426 है जबकि उसका मासिक खर्च औसतन 6,223 रूपये है।

    कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर केन्द्रीय मंत्रीमण्ड़ल के द्वारा आगामी अटूबर से प्रारम्भ होने जा रहे सत्र में गन्ने के मूल्य मे मामूली बढ़ोत्तरी सरकर ने एक बार फिर से गन्ना किसानों को निराश ही किया है। केवल 10 रूपये प्रति क्ंिवटल की बढ़ोत्तरी करना ऊँट के मुँह में जीरा वाली कहावत को ही चरित्रार्थ करने के जैस ही है।

    गत वर्ष की अपेक्षा, की गई यह वृद्वि केवल तीन प्रतिशत ही है। हालांकि, इसी सत्र के दौरान पेट्रोल में इथेनॉल के मिश्रण का लक्ष्य 20 प्रतिशत है, जिसके माध्यम से अर्थव्यस्था में सुधार आने के प्रबल आसार हैं। आयोग के द्वारा विभिन्न राज्य सरकारों से भी परामर्श मूल्य (एसपी) बढ़ाने की सिफारिश करती है, परन्तु गतवर्ष उत्तर प्रदेश सरकार समेत कई अन्य राज्यो के द्वारा इस पर अमल करने से इन्कर कर दिया गया था।

    वहीं, दूसरी ओर चीनी मिल मालिकों की संस्थाओं के द्वारा भी गन्ने का मूल्य में वृद्वि नही करने के प्रस्ताव को पास कर रही है और चीनी के मूल्यों में वृद्वि के लिए माँग कर रही हैं। इस परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा दिया गया तर्क भी सही नजर नही आ रहा है कि गन्ने के उत्पादन में 157 रूपये प्रति क्विंटल तक आती है, जबकि आयोग के सुझाव पर इसमें दोगुना तक की वृद्वि की गई है और विभिन्न संस्थाओं के द्वारा सरकार के इस दावे को चुनौतियाँ  जा चुकी हैं। जबकि पिछले वर्ष बजट - सत्र के दौरान केन्द्रीय कृषि मंत्री के द्वारा भी संसद में यह स्वीकार किया गया कि एक किसान परिवार आमदनी रू0 6,426 है जबकि उसका मासिक खर्च औसतन 6,223 रूपये है।

                                                              

    वैसे तो गन्ने की फसल को एक नकदी फसल मना जाता है, परन्तु इसके विपरीत इस फसल का पैसा वर्षों तक फसल के खरीददार पर बकाया के रूप पड़ा रहता है, जिसको प्राप्त करने के लिए किसान को वर्षों तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। हालांकि ‘शुगरकेन कंट्रोल आर्डर 1996 ‘जिसे भार्गव फार्मूला’ के नाम से भी जाना जाता है, के अनुसार गन्ना उत्पादक किसान जिस दिन अपने गन्ने को चीनी मिल के गेट पर पहुँचा दिया जाता है, उसके 14 दिन के अन्दर उसका भुगतान करना आवश्यक है और भुगतान नही करने की दशा में 15 प्रतिशत की दर से ब्यज देने का प्रावधान है। परन्तु गन्ना मिल माकिों एवं सरकार की मिलीभगत के चलते इसे शायद ही कभी अमल में लाया हो।

    भारत के 5 करोड़ गन्ना किसान और 50 लाख मजदूर इसी उद्योग के आधर अी जविका चलाते हैं, जो वार्षिक एक लाख करोड़ रूपये की आय पैदा करता है। भारत में 690 चीनी मिलें पंजीकृत हैं, जिनमें से 93 मिलें पाँच पेराई सत्र से काम नही कर पा रही है और अब यह मिलें अब बन्द होने की स्थिति में हैं। शेष 597 मिलों में से भी कई मिलें ऐसी हैं जो कि पूरे वर्षभर नही चल पाती हैं, जिसमें दो चीनी रिफाईनरी भी शामिल हैं।

    अकेले उत्तर प्रदेश में कुल 119 चीनी मिलें हैं जिनमें से 95 निजी और 23 सरकारी एवं एक राज्य चीनी निगम के स्वामित्व वाली हैं। आँकड़ों के अनुसार चालू वर्ष में चीनी का उत्पादन 328 लाख टन तक पहुँच चुका है।

                                                               

    नीति आयोग के कार्यबल की क्रियान्वयन रिपोर्ट ने तो गन्ना किसानों की नींद को ही उड़ा दिया है। आयोग के द्वारा गन्ने की खेती के रकबे को घटाने की सलाह देकर गन्ना किसानों को दुविधा में ही डाल दिया है। आयोग की इस रिपोर्ट में गन्ने की खेती में लागत के बढ़ने के विभिन्न दुष्परिणाम तो बताए गए हैं, परन्तु इसका कोई विकल्प नही दिया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार चीनी मिल मालिकों के द्वारा चीनी के उत्पादन में आए व्यय को आधार मानकर ही किसानों उत्पाद (गन्ना) के मूल्य निर्धाण का प्रावधान किया गया हैं। इससे स्पष्ट है कि गन्ने का मूल्य निर्धारण करने में चीनी मिल मालिकों के हितों का ही अधिक ध्यान दिया गया है।

                                                              

    निःसन्देह गन्ना किसानों का यह संकट नव-उदावादी आर्थिक नीतियों को लागू किए जाने तथा किसान मजदूरों के हितों की सुरक्षाके लिए बनाए गए नियम एवं कानूनों में परिवर्तन करने के कारण ही पैदा हुआ है। अनेक अध्ययनों के माध्यम से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि बीमा योजना समेत अन्य किसान कल्याण योजनाएं धरातल पर कामयाब होने में समर्थ नही हैं, जिसके कारण आज खेती-किसान एक घाटे का सौदा बनी हुई हैं।

    किसानो के द्वारा आत्महत्या करने का सिलसिला बे - रोक टोक जारी है और इसके साथ्ही नौजवानों का गाँवों पलायन करना जारी है। ग्रामीण अर्थयवस्था की जीडपी मे दिन प्रति दिन कम होत जा रही है। इ परिस्थितियों में आवश्यकता है कि विभिन्न किसान संगठनों की मांग के अनुसार, सी-2 आधारित उचित एवं लाभकारी मूल्य (एफआरपी) और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) आदि के निर्धारित कर सख्त निर्देशन में किसानों को उनकी फसलों के मूल्य भुगतान किए जाने की व्यवस्था की जाएं।

अन्य उद्योगां की तरह से ही कृषि उद्योग को भी घाटे से उबरने के लिए कड़े कानून एवं किसान-उन्मुखी योजना बनाई जानी चाहिए। इसके साथ ही कृषि के क्षेत्र में अतिरिक्त निवेश की भी तत्काल आवश्यकता है, इसके बाद ही किसान की आय का दो गुना होन सम्भव हो पाएगा।        

                                    भारत का प्राचीन जल विज्ञान आधुनिक सिद्धांतों पर खरा उतरता है

                                   

मौसम के पूर्वानुमान को आज उपग्रह व डॉप्लर रडार उपलब्ध है मगर भारत में प्राचीन काल में आकाश के रंग बादल बिजली इंद्रधनुष वायु की दिशा जानवरों की गतिविधि से इसका अनुमान लगाया जाता था। उनकी कविताएं विशेष रूप से काफी पॉपुलर थी जिसमें उन्होंने भारत का प्राचीन जल विज्ञान और उसके अनुमान के लिए विभिन्न कविताएं लिखी थी।

वर्षा को पहचानने के लिए बादलों की बनावट तीतर के पंख जैसी देखने पर वर्षा होगी इसका अनुमान गांव में बैठे लोग और किसान लगा लेते थे। सूर्य सुबह गर्म हो दिन में उसका प्रकाश पीला हो और बादल उन जैसे या काले हो तो अच्छी वर्षा होगी। तब गाय के खुर से बना गड्ढा वर्षा का सबसे छोटा मापक था, इससे अनुमान लगाया जाता था कि कितनी वर्षा हुई है भूजल का पता लगाने को भौगोलिक विशेषता दीमक के पीले और मिट्टी वनस्पति जीव चट्टान व खनिज जैसे भूगर्भीय संकेत उपयोग होते थे।

इस दौर में वर्षा अपने को विकसित यंत्रों के सिद्धांत आधुनिक जल विज्ञान के समान थे मापन के लिए द्रोण पल आदि के भजन का आधुनिक रैकेट की जगह यू किया जाता था इसी प्राचीन ज्ञान को विश्व भर में पहुंचाने का प्रयास राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुड़की द्वारा किया जा रहा है

                                                        

प्राचीनतम सभ्यताओं की भिन्न-भिन्न जरूरतों की पूर्ति को जल एक विश्वसनीय स्रोत था एनआईएचएच रुड़की के सतही जल विभाग के अनुसार वैदिक भारत से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के क्षेत्रों में जल संचयन प्रबंधन जलस्रोत को पलवित एवं पोषित करने के लिए मानवीय प्रयास रेखांकित करने का प्रयास किया गया है।

सही मायने में देखा जाए तो इस आधुनिक सिद्धांतों से दूर जो प्राचीन सिद्धांत थे उनसे गांव के बुजुर्गों और किसानों को पता चल जाता था की आगामी दिनों में कितनी बारिश होने वाली है। लेकिन जब से आधुनिक सिद्धांत आ गए हैं तो उससे और सहायता मिली है और पूर्वानुमान जो है वह अब सटीक नजर आता है जिससे किसान अपनी पहले से ही तैयारी कर लेते हैं और अपने फसलों को भी सुरक्षित रखने में सफल हो जाते हैं।