अगेती अरहर से मुनाफा कमायें Publish Date : 19/12/2024
अगेती अरहर से मुनाफा
प्रोफेसर आ. एस. सेंगर
भारतवर्ष में उत्पादन और क्षेत्रफल की दृष्टि से चने के बाद अरहर का दूसरा स्थान है, तथा विश्व के फुल अरहर उत्पादन का लगभग 80% भारत में उत्पादित होता है। एक बहुउद्दयेशीय फसल के रूप में अरहर का दाल, भूसा, और जलाने की लकड़ी के रूप में उपयोग किया जाता है।
विगत चालीस वर्षों में विभिन्न कारणों से अरहर के क्षेत्रफल में गिरावट आई है, हालाँकि पांच दशक पहले उत्तर प्रदेश में अरहर का उत्पादन सर्वोपरि था। वर्ष 2012-13 में अरहर का उत्तर प्रदेश में क्षेत्रफल 3.11 लाख हेक्टेयर रहा तथा उत्पादन लगभग 3.73 लाख टन था। अरहर की खेती विभिन्न प्रदेशों में कई फसल पद्धतियों में की जाती है। उत्तर प्रदेश के पश्चिमोत्तर एवं मध्य के कुछ हिस्सों में अल्पकालिक, जबकि पूर्वी एवं मध्य भाग में दीर्घकालिक अरहर की खेती की नाती है।
प्रजातियाँ
उत्तर प्रदेश अगेती अरहर के क्षेत्रफल तथा उत्पादन की दृष्टि से अग्रणी राज्य है। विगत वर्ष में 130 से 140 दिन में पकने वाली शीघ्र कालीन एवं 140 से 160 दिन में पकने वाली मध्य-शीघ्र कालीन प्रजातियों का विकास किया गया है, जो मुख्यतयः अरहर गेहूं फसल चक्क (सिंचित) के लिए उपयोगी हैं। इसकी प्रमुख प्रजातिया इस प्रकार है-
यू. पी. ए. एस- 120: 155 से 165 दिन में पक कर तैयार हो जाने वाली यह प्रजाति मध्यम ऊंचाई की और फैलावदार होती है। यह किस्म उत्तर प्रदेश में अच्छी पैदावार देती है। इनकी उपज क्षमता 12-15 कु./हेक्टेयर है।
मानकः 145 से 155 दिन में पकने वाली यह प्रजाति मध्यम ऊंचाई को और फैलावेदार होती है। यू. पी. ए एस-120 के मुकाबले इसकी उपज क्षमता 10-12 कु./ हेक्टेयर है और इसके दाने भी आकर में सु. पी. ए. एस- 120 से छोटे होते हैं।
बी एल ए 1: मध्यम ऊंचाई की यह प्रजाति 125-130 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। अच्छी खेती करने पर इसकी उपज क्षमता 10-12 कु./ हेक्टेयर है। इस प्रजाति की संस्तुति पश्चिम उत्तर प्रदेश के लिए की गयी है।
पूसा 992: मध्यम ऊंचाई की यह प्रजाति 150-160 दिन में परिपक्व हो जाती है। इसकी उपज क्षमता 10-14 कु./हेक्टेयर है।
पुसा 885: परिपक्व होने में 150-160 दिन लेने वाली इस प्रजाति के बीज का आकर अन्य अल्प कालीन प्रजातियों की तुलना में बड़ा होता है। इसकी उपज क्षमता 12-18 कु./हेक्टेयर है।
बुवाई के लिए उपयुक्त समय
अगेती अरहर की बुवाई का उपयुक्त समय जून माह तक है। बुवाई में देरी से पौधे की अपेक्षाकृत वृद्धि नहीं होती और फूल जल्दी आ जाते हैं इसका असर उत्पादन और उत्पादकता में पड़ता है, क्योंकि ऐसा करने से पौधे की अपेक्षाकृत वृद्धि नहीं होती और फूल जल्दी आ जाते हैं। कई बार फूल बनने के समय तापमान में कमी होने की वजह से अच्छी फसल नहीं मिल पाती है। अतः विलम्ब से लगायी गयी अगेती अरहर अपेक्षाकृत आर्थिक लाभ नहीं प्रदान कर पाती है और अरहर की कटाई के पश्चात ली जाने वाली फसल (गेहूं) की उत्पादकता भी प्रभावित हो जाती है।
खेती के लिए उपयुक्त भूमि
किसी भी प्रकार की भूमि (लवणसुक्त के अलावा) में अरहर की खेती की जा सकती है। परन्तु फसल की सुरक्षा की दृष्टि से ऐसे खेतो का चयन किया जाना चाहिए, जिनमें पिछले वर्ष अरहर की खेती न की गयी हो। खेत में सिचाई तथा जल निकास का उपयुक्त प्रबंध होना चाहिए, ताकि जल भराथ न हो और अरहर की अच्छी फसल प्राप्त की जा सके।
खेत की तैयारी
ढीली एवं वेलेदार भूमि की सतह, अरहर की खेती के लिए उपयुक्त है खेत में 15 से 20 सेमी. गहराई तक
जुताई, आवश्यकतानुसार एक या दो बार हैरो चलाकर मिट्टी के छोटे छोटे देले जैसी जमीन तैयार कर लेनी चाहिए। मिट्टी के कटाव और पानी जमा नहीं होने के लिए ढलान की दिशा में नालियां बनानी चाहिए। अंतिम जुताई के पूर्व 25-30 किग्रा. पयूरोडॉन या 2-3 किग्रा. फोरेट प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में भली भांति मिलाने से मिट्टी के हानिकारक कीटो व दीमक से फसल का बचाव किया जा सकता है। बुवाई के समय कतारों के बीच की दूरी 60 से.मी. और एक से दूसरे पौधे के बीच की दूरी 15-20 सेमी. होना चाहिए। अंगमारी रोग से बचाव हेतु अगेती अरहर की बुवाई मेड़ों पर करनी चाहिए ।
बीज दर
खेत में पौधों का समुचित संख्या में होना अरहर की अच्छी उपज के लिए आवश्यक है। अगेती अरहर की खेती में साधारणतयः पौधों की संख्या 80,000 से 1,00,000 प्रति हेक्टेयर (लगभग 8-10 पौधे प्रति वर्ग मीटर) के अनुसार निर्धारित की जाती है। एक हेक्टेयर खेत के लिए लगभग 18 से 20 किग्रा. चीज पर्याप्त होता है।
बीजोपचार एवं बीजशोधन
राइजोवियम कल्चर का एक पैकेट 10 किग्रा. बीज के लिए पर्याप्त होता है। राइजोब्रियम कल्चर से उपचार के बाद बीज को कुछ देर छाया में सुखा लिया जाता है। जहाँ तक संभव हो उपचारित बीज को धूप में नहीं सुखाना चाहिए। बीज जनित रोगों से बचाव के लिए, विभिन्न प्रकार के फफूंदनाशी रसायनों जैसे धीरम या कार्बिन्डजिम 1 से 2 ग्राम पा मैन्कोजेब 3 ग्राम का प्रति किलो बीज के हिसाव से प्रयोग करें। इसके अतिरिक्त, मिट्टी में पाये जाने वाले कीटों की रोकथाम के लिए क्लोरोपायरीफॉस 20 ईसी से 10-12 मिली. प्रति किलो के अनुसार बीज का उपचार करे। बीज शोधन को प्रक्रिया राइजोचियम कल्बर से उपचार के पूर्व ही कर लेना चाहिए।
आवश्यक पोषक तत्वों का प्रबंधन
उत्तर प्रदेश एवं आस पास के क्षेत्र में अरहर की खेती विभिन्न प्रकार की मृदाओं पर की जाती है। इन मृदाओं में जो पोषक तत्व उपलब्ध रहते हैं, उनका प्रभाव अरहर की उत्पादकता पर भी पड़ता है, प्रदेश की अधिकांश मृदाओं में नत्रजन की कमी पायी जाती है, जबकि कुछ मृदाओं में फॉस्फोरस और पोटाश की भी कमी है। पिछले कुछ वर्षों से बोरोन, गंधक एवं जस्ते की कमी भी कुछ क्षेत्रो में देखी गयी है। लेग्यूमीनेसी (दलहन) परिवार के होने के कारण इसकी जड़ो में पाये जाने वाले जीवाणु वायुमंडलीय नत्रजन के स्थिरकरण से नत्रजन का पोषण करते हैं। इस नत्रजन का उपयोग पौधे अपनी प्रारंभिक वृद्धि में करते हैं। अगेती अरहर की अच्छी उपज के लिए आमतौर पर 20 किग्रा. नत्रजन, 40 किग्रा. फॉरफोरस, 40 किग्रा. पोटाश एवं 20 किग्रा. गंधक की प्रति हेक्टेयर की दर से आनश्यकता होती है। अगेती अरहर में जस्ता, बोरोन और मोलियोनम के प्रयोग का भी अच्छा प्रभाव देखा गया है। अतः इन सूक्ष्म तत्वों की कमी होने पर 10 किया. बोरेक्स तथा 1.5 किग्रा. अमोनियम मोलीबडेनम का प्रति हेक्टेयर की दरसे उपयोग सूक्ष्म तत्वों की कमी पूरा कर देता है टिकाऊ उत्पादन तथा भूमि उर्वरता बनाये रखने के लिए गोबर की खाद, हरी खाद, फसल अवशेष व जैविक खादों का भी प्रयोग किया जा सकता है।
सिंचाई
अगेती अरहर की जल्दी पकने वाली प्रजातियों में प्रति इकाई क्षेत्र पौध संख्या अधिक होने के कारण पानी की अधिक आवश्यकता पड़ती है, पहली सिंचाई बुवाई के 40-50 दिनों के अंदर (आवश्यकतानुसार) तया दूसरी सिंचाई दाना बनने की अवस्था में आवश्यक होती है। सिंचाई करते समय ध्यान रखना चाहिए की पानी खेत में ज्यादा समय तक न ठहरे ।
खरपतवार प्रबंधन
खरपतवारों के नियंत्रण के लिए खरपतवारनाशी रसायन जैसे-पेन्डमेथेलेन का उपयोग 2.5 से 3.0 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई के तुरंत बाद करने से चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। इसके साथ बुवाई के 45-50 दिन के बाद एक निराई करने से समुचित खरपतवार का नियंत्रण हो जाता है। यदि खरपतवार का प्रयोग नहीं किया जा सका है तो फसल के उचित स्थापन और वृद्धि के लिए दो बार खरपतवार की निराई करनी चाहिए और पहली निराई बोने के 25-30 दिन बाद तथा दूसरी निराई 45-50 दिन के बाद करनी चाहिए। यदि वर्षा हो रही हो तो निराई गुड़ाई नहीं करनी चाहिए अन्यथा फसल में अंगमारी रोग लगने की सम्भावना बढ़ जाती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।