केले की खेती Publish Date : 12/08/2024
केले की खेती
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर एवं डॉ0 रेशु चौधरी
हमारे देश के फलों में केले का प्रमुख स्थान है। इसकी खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश में बढ़ती जा रही है। केले का फल पौष्टिक होता है। इसमें शर्करा एवं खनिज लवण जैसे फास्फोरस तथा कैल्शियम प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। इसकी खेती निम्न बातों को ध्यान में रखकर की जाये तो आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होगा।
वर्तमान में, उत्तर प्रदेश में 68000 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर केले की खेती होती है और हर साल 30 मीट्रिक टन से अधिक केले का उत्पादन होता है। केला उत्पादन में लखीमपुर खीरी अग्रणी है, जिसके बाद कुशीनगर, महराजगंज, प्रयागराज और कौशांबी का स्थान है।
भूमि
दोमट भूमि जिसका जल निकास अच्छा हो और भूमि का पी.एच. मान 6 से 7.5 के बीच हो केले की खेती के लिए अच्छी भूमि मानी जाती है।
गड्ढ़ों की खुदाई कैसे करें?
केले की बुवाईं करने के लिए गड्ढे की लम्बाई, चौड़ाई एवं गहराई 60Û 60Û 60 सें.मी. रखें।
गड्ढ़ों की खुदाईं का समय
गड्ढ़ों की खुदाई का उचित समय अप्रैल-मई का महीना माना जाता है।
गड्ढे की भराई करने का तरीका
गोबर या कम्पोस्ट की सड़ी खाद (20-25 कि.ग्रा. या 2-3 टोकरी) तथा 100 ग्राम बी. एच. सी. प्रति गड्ढा, उपरोक्त पदार्थाे को गड्ढे की ऊपर की मिट्टी में मिश्रित करके जमीन की सतह से लगभग 10 सें.मी. ऊँचाई तक भरकर सिंचाई कर देनी चाहिए जिससे मिट्टी मिश्रण गड्ढे में अच्छी तरह चला जाए।
केले पौधों की दूरी एवं संख्या
केले के पौधों एवं कतार की दूरी 1.5x 1.5 मीटर, 4400 पौधे प्रति हेक्टेयर तक उचित माने जाते हैं।
लगाने का समय
केले के पौधे जमीन मे लगाने का उचित समय 15 मई से 15 जुलाई तक माना गया है वैसे केले के पौधे लगाने के लिए जून का महीना सबसे उपयुक्त होता है।
केले की उन्नतशील किस्में
केले की अनेक किस्में हैं जो इस क्षेत्र में उगायी जा सकती हैं, जैसे - ड्वार्फ कैवेंडिश, रोवस्टा, मालभोग, चिनिया, चम्पा, अल्पान, मुठिया/कुठिया तथा बत्तीसा आदि। इन किस्मों के विषय में कुछ जानकारी नीचे दी जा रही है-
ड्वार्फ कैवेंडिशः- यह सबसे प्रचलित एवं अधिक पैदावार देने वाली किस्म है। इस पर पनामा उक्ठा नामक रोग का प्रकोप नहीं होता है। इस प्रजाति के पौधे बौने होते हैं व औसतन एक घौंद (गहर) का वजन 22-25 कि.ग्रा. तक होता है, जिसमें 160-170 फलियाँ आती हैं। एक फली का वजन 150-200 ग्रा. होता है। फल पकने पर पीला एवं स्वाद में उत्तम होता है। हालांकि इस प्रजाति का फल पकने के बाद जल्दी खराब होने लगता है।
रोवेस्टाः- इस किस्म का पौधा लम्बाई में ड्वार्फ कैवेंडिश से ऊँचा होता है और इसकी घौंद या गहर का वजन अपेक्षाकृत अधिक और सुडौल होता है। यह किस्म प्रर्वचित्ती रोग से अधिक प्रभावित होती है। परन्तु पनामा और उकठा रोग के प्रति पूर्णतया प्रतिरोधी होती है।
मालभोगः- केले की यह प्रजाति अपने लुभावने रंग, सुगंध एवं स्वाद के लिये लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन यह प्रजाति के पौधों मे पनामा और उक्ठा रोग के प्रकोप से इसकी फसल को हानि होती है। इनके पौधे बड़े होते हैं। फल का आकार मध्यम और उपज औसतन होती है।
चिनिया चम्पाः- यह भी खाने योग्य स्वादिष्ट किस्म है जिसके पौधे बड़े किन्तु फल छोटे होते हैं। इस किस्म को परिवार्षिक फसल के रूप में उगाया जाता है।
अल्पानः- यह वैशाली क्षेत्र में उगाये जाने वाली मुख्य किस्म है। इस जाति के पौधे बड़े होते हैं जिस पर लम्बी घौंद लगती है। फल एक आकार छोटा होता है। फल पकने पर पीले एवं स्वादिष्ट होते हैं जिसे कुछ समय के लिये बिना खराब हुए रखा जा सकता है।
मुठिया/कुठियाः- यह सख्त किस्म है। इसकी उपज जल के अभाव में भी औसतन अच्छी होती है। फल मध्यम आकार के होते है जिनका उपयोग कच्ची अवस्था में सब्जी हेतु एवं पकने पर खाने के लिये किया जाता है। फल एक स्वाद साधारण होता है।
बत्तीसाः- यह किस्म सब्जी के लिये काफी प्रचलित है जिसकी घौंद लम्बी होती है और एक गहर में 250-300 तक फलियाँ आती हैं।
पुत्तियों का चुनाव
2-3 माह पुरानी, तलवारनुमा पुत्तियाँ हों।
टीसू कल्चर से प्रवर्धित पौधे रोपण के लिए सर्वाेत्तम होते हैं, क्योंकि इनमें फलन शीघ्र तथा समय पर होती है।
खाद एवं उर्वरक
300 ग्राम नाइट्रोजन, 100 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटाश प्रति पौधा प्रति वर्ष नाइट्रोजन को पाँच, फास्फोरस को दो तथा पोटाश को तीन भागों में बाँट कर देना चाहिए।
जिसका विवरण निम्नवत है -
पौध रोपण के समय: फास्फोरस 50 ग्राम।
पौध रोपण के एक माह बाद: नाइट्रोजन 60 ग्राम।
पौध रोपण के दो माह बाद: नाइट्रोजन (60 ग्राम) $ फास्फोरस (50 ग्रा.) $ पोटाश (100 ग्रा)
पौध रोपण के तीन माह बाद: नाइट्रोजन (60 ग्रा.) $ पोटाश (100 ग्रा.)।
फूल आने के दो माह पहले: नाइट्रोजन 60 ग्राम।
फूल आने के एक माह पहले: नाइट्रोजन (60 ग्रा.) $ पोटाश (100 ग्रा.)।
खाद एवं उर्वरक को पौधे के मुख्य तने से 10-15 सें.मी. की दूरी पर चारों तरफ गुड़ाई करके मिट्टी में मिला देना चाहिए और पौधे की तुरन्त सिंचाई कर देनी चाहिए।
सिंचाई
सामान्यतया बरसात में (जुलाई-सितम्बर) सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है। गर्मियों में (मार्च से जून तक) सिंचाई 5-6 दिन के अंतराल पर करनी चाहिए। सर्दियों में (अक्टूबर से फरवरी तक) 12-13 दिन के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए।
अवरोध परत (मल्चिंग)
पौधों के नीचे पुआल अथवा गन्ने की पत्ती की 8 सें.मी. मोटी परत अक्टूबर माह में बिछा देनी चाहिए। इससे सिंचाई की संख्या में 40 प्रतिशत की कमी हो जाती है, खर पतवार नहीं उगते तथा उपज एवं भूमि की उर्वराशक्ति बढ़ जाती है।
पुत्ती निकलना
पौधे के बगल से निकलने वाली पुत्तियों को 20 सें.मी. तक वृद्धि करने के पहले ही भूमि की सतह से काट कर निकालते रहना चाहिए। मई-जून के महीन में एक पुत्ती हर पौधे के पास अगले वर्ष पेड़ी की फसल के लिए छोड़ देना चाहिए।
नर फूल से गुच्छे काटना
फल टिकाव हो जाने पर घार के अगले भाग पर लटकते नर फूल के गुच्छे को काट देना चाहिए।
पौधों को सहारा देना
घार निकलते समय बांस/बल्ली की कैंची बनाकर पौधों को दो तरफ से सहारा देना चाहिए।
मिट्टी चढ़ाना
बरसात से पहले एक पंक्ति के सभी पौधों को दोनों तरफ से मिट्टी चढ़ाकर बांध देना चाहिए।
कीट एवं रोग नियंत्रण
पत्ती विटिलः यह कीट कोमल पत्तों तथा ताजे बने फलों के छिलके को खाता है। प्रकोप अप्रैल-मई प्रारम्भ होकर सितम्बर-अक्टूबर तक रहता है। रोकथाम के लिए इन्ड़ोसल्फान 2 मि.ली. अथवा कार्वरिल 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर पहला छिड़काव फूल आने के तुरन्त बाद तथा दूसरा इसके 15 दिन बाद करना चाहिए।
केले का घुन (बनाना विविल):- इस कीट के प्रौढ़ तथा सुंडियां दोनों ही केले के लिए हानिकारक होते हैं। इसका प्रकोप बरसात में अधिक होता है। भूमि सतह के पास तने अथवा प्रकन्द में छेद बनाकर मादा अंडे देती है। इनसे सुंडियां निकलकर तने में छेद करके खाती रहती हैं। इसके फलस्वरूप सड़न पैदा हो जाती है तथा पौधा कमजोर होकर गिर जाता है।
इसकी रोकथाम हेतु
(क) स्वस्थ कंद लगाने चाहिए।
(ख) कंदों को लगाने से पहले साफ करके एक मि.ली. फास्फेमिडान अथवा 1.5 मि.ली. मोनोक्रोटोफास प्रति लीटर पानी के बने घोल में 12 घंटे तक डुबों कर उपचारित कर लेना चाहिए।
(ग) अधिक प्रकोप होने पर एक मि.ली. फास्फेमिडान प्रति 3 लीटर पानी अथवा डाईमेथियोयेट 1.0 मि.ली. अथवा आक्सीडीमेटान मिथाइल 1.25 मि.ली. का प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर 15-20 दिन बाद यह छिड़काव दुबारा कर देना चाहिए।
पनामा बिल्टः यह रोग कवक के कारण होता है। इसके प्रकोप से पौधे की पत्तियाँ पीली पड़कर डंठल के पास से नीचे झुक जाती है। अंत में पूरा पौधा सूख जाता है। रोकथाम के लिए बावेस्टीन के 1.5 मि.ग्रा. प्रति ली. पानी के घोल से पौधों के चारों तरफ की मिट्टी को 20 दिन के अंतर से दो बार तर कर देना चाहिए।
तना गलन (सूडोहर्ट राट):- यह रोग फफूंदी के कारण होता है। इसके प्रकोप से निकलने वाली नई पत्ती काली पड़कर सड़ने लगती है। इससे पौधे की वृद्धि रुक जाती है और पौधा पीला पड़कर सूखने लगता है। रोकथाम हेतु डाइथेन एम. - 45 के 2 ग्राम अथवा बावेस्टीन के 1.0 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल का 2-3 छिड़काव आवश्यकतानुसार 10-15 दिन के अंतर से करना चाहिए।
लीफ स्पाटः यह रोग कवक के कारण होता है। पत्तियों पर पीले भूरे रंग के धब्बे बनते हैं। पौधा कमजोर हो जाता है तथा बढ़वार रुक जाती है। रोकथाम हेतु डाईथेन एम.-45 के 2 ग्राम अथवा कापर आक्सीक्लोराइड के 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल 2-3 छिड़काव 10-15 दिन के अंतर से करना चाहिए।
बन्चीटापः यह रोग विषाणु के द्वारा होता है तथा माहूँ द्वारा फैलता है। रोगी पौधों की पत्तियाँ छोटी होकर गुच्छे का रूप धारण कर लेती हैं। पौधों की वृद्धि रुक जाती है तथा फलन नहीं होती है। रोकथाम हेतु प्रभावित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए। अगली फसल के रोपण हेतु रोग प्रभावित बाग़ से पुत्तियाँ नही लेनी चाहिए। माहूँ के नियंत्रण के लिए दैहिक रसायन जैसे डाईमथियोयेट 1.0 मि.ली. प्रति लीटर पानी अथवा 1.0 मि.ली. फास्फेमिडान प्रति 3 लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
फलन एवं तोड़ाई
केले में रोपण के लगभग 12 माह बाद फूल आते हैं। इसके लगभग 3 माह के बाद घार काटने योग्य हो जाती है। जब फलियाँ तिकोनी न रहकर गोलाई ले लें तो इन्हें पूर्ण विकसित समझना चाहिए।
उपज
एक हेक्टेयर बाग़ से 60-70 टन उपज प्राप्त की जा सकती है जिससे शुद्ध आय 60-70 हजार तक मिल सकती है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।