गन्ने की फसल के लिए एकीकृत रोग प्रबन्धन Publish Date : 06/08/2024
गन्ने की फसल के लिए एकीकृत रोग प्रबन्धन
प्रोफेसर आर. एस. सेंगर
भारत में गन्ने की फसल एक प्रमुख नकदी एवं औद्योगिक फसल है। गन्ने के उत्पादन को पभावित करने वाले कारकों मे गन्ने में लगने वाले रोग पमख स्थान पर आते हैं, यह रोग गन्ने की फसल को बुआइ से लेकर कटाईं तक प्रभावित करते हैं। यह रोग गन्ने के रस की मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों को प्रभावित करते हैं। इसका सीधा प्रभाव गन्ने से चीनी के उत्पादन पर पड़ता है। वैसे गन्ने में एक नही अपितु अनेक रोग लगते हैं, जिका प्रबन्धन किसी भी एक विधि के द्वारा सम्भव नही है। अतः गन्ने में रोग प्रबन्धन करने के लिए वर्तंमान में उपलब्ध समस्त विधियों जैसे कि सस्य, भौतिक, यान्त्रिक, जैविक एव रासायनिक आदि विधियों को सम्भावित तरीके, वैज्ञानिक एवं समय के अनुार अपनाया जाना चाहिए, इससे रोगों से होने वाली हानि के आर्थिंक स्तर को नीचे लाया जा सकें और इस नकदी फसल को रोगों से बचाव किया जा सके।
गन्ने की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग
1. लाल सड़नः- यह रोग गन्ने में कानापन अथवा गन्ने के कैंसर आदि नामों से भी जाना जाता है। यह एक फंफूद जनक रोग है। वर्षं 1935-36 में यह रोग उत्तर प्रदेश में एक महामारी के तौर पर फैला था, जिसने को. 213, को. 312, को. 419, को. 360 आदि प्रजातियों को अपना शिकार बनाया था और कई प्रजातियां इस रोग के प्रभाव के कारण अस्वीकृत भी हो चुकी हैं। इस रोग के लक्षण जुलाई-अगस्त माह से दिखाई देना प्रारंभ कर देते हैं और फसल के अंत तक बने रहते हैं। इस रोग के कारण प्रभावित पौधों की ऊपर से तीसरी या चौथी पत्ती एक किनारे या दोनों किनारों से सूखने लगती है और बाद में पूरा अंगोला ही सूख जाता है। यदि ऐसे गन्ने के पौधों को फाड़कर देखें तो उनका गूदा लाल रंग का दिखाई देता है और साथ ही जगह-जगह सफेद रंग के धब्बे भी पाये जाते हैं। इस तरह के पौध से एल्कोहल या सिरके जैसी गंध आती है। प्रभावित पौधा अंदर ही अंदर खोखला हो जाता है, और खोखले भाग में रोगकारक, भूरे रंग की फफूंदी की जमाव एवं वृद्धि आसानी से देखी जा सकती है। यह भी देखने में आया है कि कभी-कभी प्रभावित गन्ने के पौधों की पत्तियों की मध्य शिराओं पर लाल रंग के छोटे-छोटे धब्बे बन जाते हैं जो बाद में मिलकर पूरी मध्य शिरा को लाल रंग में परिवर्तित कर देते हैं।
कुण्डआ रोगः- सामान्यतः इस रोग का प्रकोप उत्तर प्रदेश में कम होता है परंतु महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा मध्य प्रदेश आदि राज्यों में अधिक होता है। को. 1148 व को. 740 प्रजातियों को इस रोग ने भयंकर तरीके से प्रभावित किया है। यह एक बीज द्वारा फैलने वाला फफूंदी जनित रोग है। इस रोग के लक्षण गन्ना बीज बोने के दो तीन महीने बाद परिलक्षित होने लगते हैं। प्रभावित पौधों की पत्तियां नुकीली, पतली एवं पंख के आकार की हो जाती हैं। ऐसे पौधे अन्य पौधों की अपेक्षा अति तीव्र वृद्धि करके लंबे एवं पतले हो जाते हैं। तत्पश्चात रोगग्रस्त पौधों के शीर्ष से लंबी चाबुकनुमा आकृति निकल आती है जो लगभग एक मीटर तक लंबी हो सकती है। यह आकृति पूर्व में पतली सफेद झिल्ली द्वारा ढकी रहती है जिस पर रोग जनक के बीजाणु करोड़ों की संख्या में भरे रहते हैं। जब यह झिल्ली हवा के झोंको द्वारा फटती है तो ये बीजाणु बाहर निकल कर अन्य स्वस्थ पौधों में द्वितीयक संक्रमण उत्पन्न करते हैं।
घासीय प्ररोह रोगः- इस रोग को विवर्ण, ग्रासी शूट के लक्षण जुलाई से सितम्बर तक गन्ने की खड़ी या एल्बिनों के नाम से भी जाना जाता है। इस बीमारी के लक्षण जलाईं से सितम्बर तक गन्ने की खड़ी फसल पर स्पष्ट रुप से दिखाई देने लगते हैं। प्रभावित पौधों में अनेक छोटी पतली-पतली पत्तियां तथा कल्ले निकल आते हैं। ऐसे पौधों से हरा रंग समाप्त होने पौधों की निचली पुरानी पत्तियों की मध्य शिरा के लगता है और सफेद पीला रंग दिखाई देने लगता है। पौधों की निचली पुरानी पत्तियों की मध्य शिरा के समानांतर दूधिया रंग की धारियां पड़ जाती हैं। प्रभावित गन्ने के थानों मे रोगी पौधों की संख्या बढ़ जाती है जो छोटे एवं पतले होते हैं तथा बाद में पूरा थान घास की आकृति में परिवर्तित हो जाता है अतः इस रोग को घासीय प्ररोह रोग के नाम से भी जाना जाता है।
उकठा रोगः- यह एक फफूंदी रोग है जो भारत के सभी राज्यों में पाया जाता है। इस रोग का प्रसार गन्ने के बीज द्वारा होता है। यह रोग जब गन्ने के अन्य रोगों एवं कीटों जैसे लाल सड़न, कण्डुआ, गन्ना बेधक और शल्य कीट आदि के साथ आता है तो इसका प्रकोप भयंकर होता है। सामान्यतः इस रोग के लक्षण वर्षा ऋतु से ही दिखाई देने लगते हैं। यह रोग गन्ने की बावक एवं पेड़ी दोनों फसलों को ही प्रभावित करता है। इस रोग से प्रभावित पौधों की पत्तियों की मध्य शिरा पीली पड़कर सूखना शुरू हो जाती है। तत्पश्चात पौधों की समस्त ऊपरी पत्तियां सूखकर नीचे की ओर झुक जाती है और अन्ततः पूरा पौधा ही सूख जाता है। ऐसे सूखे हुए पौधे हल्के एवं अंदर से खोखले हो जाते हैं। प्रभावित पौधों को लम्बवत फाड़कर देखने पर उनका गूदा हल्के बैंगनी अथवा गंदले लाल रंग का दिखाई देता है तथा पौधों से सिरके अथवा एल्कोहल जैसी गंध आती है। रोगी पौधों की पोरियां खोखली हो जाती है और उनमें रोगजनक के असंख्य बीजाणु भर जाते हैं, उनकी जड़ें सड़ जाती हैं, बढ़वार रुक जाती है और अंत में पूरा पौधा सूख जाता है जिससे खेत में पौधों की सख्या कम हो जाती है।
पतसूखा रोगः- गन्ने के इस रोग को लीफ स्काल्ड रोग भी कहते हैं। यह एक शाकाणुजनक रोग है।इस रोग के कारण पौधों की पत्तियों की शिराओं के साथ लम्बाईं मे सफेद रंग की धारियां बन जाती हैं और जैसे-जैसे पत्तियां बढ़ती हैं उसी के अनुरूप यह धारियां भी चौड़ी होती जाती हैं और बाद में यह गुाबी रंग मे परिवर्तिंत हो जाती हैं। धारियां पत्ती के ऊपर से नीचे की ओर सूखना पुारम्भ कर देती हैं। विशेष रूप से अगोले की पत्तियां कछ कड़ी एवं मुड़ी हुईं होती हैं जिनके सिरे इन सफेद धारियों के सूख जाने के कारण झुलसी हुईं प्रतीत होती हैं। प्रभावित पौधों की पोरियां छोटी रह जाती हैं और आँखों से कल्ले निकलने लगते हैं। प्रभावित पौधों को यदि फाड़कर देखा जाए तो उनके गूदे मे पतली-पतली लाल रंग की धारियां बन जाती हैं। जिन प्रभावित पौधों की आंखों से कल्ले निकल आते हैं उनमें लाल रंग की धारियां स्पष्ट रूप से नजर आती हैं।
पेड़ी का कुठंन रोगः- इसे पेड़ी का बौना रोग भी कहा जाता है क्योंकि यह रोग बावक फसल की बजाय पेड़ी में लगता है। गन्ने के अन्य रोगों जैसे लाल सड़न, उकठा या मोर्जेक के साथ आने पर इस बीमारी का प्रकोप भयंकर होता है। पेड़ी के कुंठन रोग को सामान्यतः पहचानना कठिन कार्य है क्योंकि इसके लक्षण पौधों के बाह्य भागों में प्रदर्शित नहीं होते हैं प्रभावित पौधे पतले व छोटे हो जाते हैं और संवहन उत्तक गहरे लाल या गुलाबी रंग में बदल जाते हैं। यदि हाइड्रोजन पराक्साइड और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के मिश्रण को प्रभावित पौधों की आंखों में डाला जाय तो उनका रंग नीला हो जाता है।
एकीकृत रोग प्रबंधन की रूपरेखाः- रसायनों के बढ़ते हुए दुष्प्रभाव को रोकने के लिए एकीकृत रोग प्रबंधन तकनीकी को अपनाया जाना अति आवश्यक है। इस विधि में रोग नियंत्रण के सभी तरीकों को क्रमवार, सुसंगठित एवं वैज्ञानिक ढंग से अपनाया जाता है और ध्यान रखा जाता है कि रोगनाशी रसायनों पर निर्भरता को कम किया जा सके। फिर भी यदि रसायनों के प्रयोग की आवश्यकता पड़े तो उनकी उचित एवं आवश्यक मात्रा ही प्रयोग की जाये जिससे की पर्यावरण, मनुष्य, जानवर, फसल आदि पर पड़ने वाले इनके कुप्रभाव को रोका जा सके और रोगों से होने वाली क्षति को भी आर्थिक स्तर से नीचे लाया जा सके। गन्ने के प्रमुख रोगों को प्रबंधित करने के लिए एकीकृत रोग प्रबंधन की रुपरेखा निम्न प्रकार है।
1. रोग रोधी प्रजातियों का चयनः- यह बहुत ही सस्ता, सरल तथा पर्यावरण की दृष्टि से सुरक्षित उपाय है। गन्ने के काना तथा उकठा रोग के नियंत्रण में रोगरोधी प्रजातियों का अति महत्व है क्योंकि ये मुख्यतः बीज द्वारा फैलने वाले रोग हैं। रोगरोधी प्रजातियों को उत्तर प्रदेश के गन्ना शोध संस्थानों जैसे- शाहजहांपुर, सेवहरी, मुजफ्फरनगर तथा गोलागोकर्णानाथ से आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। को.शा. 8436, 88230, 95255, 96268,.. 8432, 88126, 92423, 93278, 94257, 94270, 95222, 95422, 96436, 97267, यू.पी. 2339, 9529, 9530 इत्यादि प्रजातियाँ उत्तर प्रदशे में गन्ने के प्रमुख रोगों के प्रति प्रतिरोधी पायी गयी हैं।
2. स्वस्थ बीज का प्रयोगः- गन्ना बीज बोने से पूर्व यह अवश्य ध्यान रखें कि बीज को प्रमाणित एवं स्वस्थ पौधशाला से ही प्राप्त किया जाए। बीज की कटाई से पूर्व पौधशाला का विभिन्न रोगों के प्रति भली-भांति निरीक्षण कर लें। आई.एस.आई. ने विभिन्न रोगों के संबंध में गन्ना बीज के लिए एक मानक तैयार किया है। यदि रोगों की प्रतिशतता मानक से अधिक है तो ऐसे बीजों का प्रयोग कदापि न करें। इस मानक के अनुसार लाल सड़न/कण्डुआ रोग 0.0ः, घासीय प्ररोह रोग 0.0ः, पेड़ी का कुंठन 0.0%, उकठा रोग 0.1% एवं पतसूखा रोग 0.1% से अधिक नहीं होना चाहिए।
3. बीजोपचारः-
1. गन्ने के कईं रोग इसके बीज के द्वारा ही फैलते हैं। यदि गन्न्े के पौधों को भली-भाँति उपचारित करके बोया जाये तो काफी हद तक रोगों को कम किया जा सकता है। बीजोपचार निम्न तरीके से किया जा सकता है।
अ. ताप शोधनः गन्ने के पैड़ों को 50° से. तापक्रम पर दो घंटे या गर्म नम वायु में 54° से. तापक्रम पर चार घंटे तक उपचारित करें। इससे गन्ने के कण्डुआ तथा पेड़ी कुण्ठन रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है।
ब. जैव उपचारः- ट्राइकोडरमा नामक फफूंदी के घोल में गन्ने के पेड़ों को उपचारित करने पर गन्ने के लाल सड़न तथा उकठा रोग का प्रभावी नियंत्रण किया जा सकता है।
स. रसायनिक उपचारः- गन्ने के बीजों को ताप उपचार देने के पश्चात थायरम या बेनोमाइल या कार्बेन्डाजिम के 0.2 प्रतिशत घोल में 5-7 मिनट तक उपचारित करने पर उकठा रोग के जनक को बीजों से खत्म किया जा सकता है।
4. उचित फसल चक्रः- एक ही खेत में गन्ना बार-बार नही बोना चाहिए क्योंकि इससे रोगजनकों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है। फसल चक्र में हरी खाद को अवश्य समाहित करना चाहिए। इन फसलों से रोग जनकों की संख्या एवं फैलाव को कम किया जा सकता हैं। गन्ने के साथ अरहर लेने की फसल लेने पर गन्ने की फसल में उकठा रोग के संक्रमण में कमी आती है।
5. खेत की सफाईः- गन्ने की फसल की कटाई के पश्चात खेत में छूटे हुए फसल के सभी अवशेषों को भली-भांति जलाकर नष्ट कर देना चाहिए। चूंकि इन्हीं अवशेषों पर अवशेषों पर रोग जनकों के रोगाणु वर्षों तक जीवित पड़े रहते हैं जो भविष्य में आने वाली गन्ने की फसल को प्रभावित करते हैं।
6. जल प्रबन्धनः- गन्ने के खेत में सिचाईं एवं जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। ध्यान रखा जाना चाहिए कि गन्ने के खेत में आवश्यकता से अधिक पानी न भरे क्योंकि इससे लाल सड़न, घासीय प्ररोह. आदि रोगों के लगने की सम्भावना अधिक बढ़ जाती है। गन्ने में समुचित सिंचाई देने से उकठा रोग को कम किया जा सकता है।
7. पेड़ी का रखनाः- गन्ने की जिस मुख्य फसल में कोई रोग लगा हो उसकी पेड़ी कदापि नहीं लेना चाहिए, क्योंकि इससे रोगी पेड़ी के तैयार होने की संभावना अधिक रहती है। जिस खेत में पेड़ी लेना हो उसकी मुख्य फसल की कटाई के पश्चात अवशेषों को अच्छी तरह से साफ कर देना चाहिए।
8. यांत्रिक विधिः- गन्ने की फसल में बुवाई के बाद से ही फसल का सघन निरीक्षण करते रहना चाहिए और जहां भी रोगी पौधे दिखाई दें उन्हें तुरंत उनके थाले सहित उखाड़कर पूर्ण रुप से जला या मिट्टी में दबा देना चाहिए। इस क्रिया से रोगाणुओं को स्वस्थ पौधों में फैलने से रोका जा सकता है।
9. भूमि का जैव शोधनः- खेत को गन्ने के बीजों को बुवाईं से पूर्व ट्राइकोडर्मा नामक फफूंदी से उपचारित कर देना चाहिए। यह फफूंदी जमीन में उपस्थित उकठा रोग के जनक पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है और उसे नष्ट करती है।
10. रसायनिक नियंत्रकः- उपरोक्त तरीकों को अपनाने के बाद भी यदि फसल में कोई रोग दिखाई दे तो रसायनों का पर्णीय छिड़काव करना चाहिए। ऐसे रसायनों का चुनाव करना चाहिए जो पर्यावरण को क्षति न पहुंचाये और परिणाम भी अच्छा दें। फिर भी जहां तक संभव हो सके रसायनों के प्रयोग से बचना चाहिए। रोगों को सस्य, यांत्रिक, भौतिक एवं जैविक तरीकों से ही प्रबंधित करना चाहिए। गन्ने के लाल सड़न, पत्ती की लाल धारी एवं अगोले के सड़न रोग हेतु ताम्रयुक्त रसायनों जैसे- कॉपर आक्सीक्लोराइड या कॉपर सल्फेट के 0-25 प्रतिशत घोल का छिड़काव खड़ी फसल में जून के अंतिम सप्ताह या जुलाई के प्रथम सप्ताह में करना लाभकारी रहता है। गन्ने में उकठा रोग के प्रबंधन हेतु गन्ने के पेड़ों की बुवाई से पूर्व मृदा में बोरैक्स की 15 किग्रा. मात्रा या सल्फर की 50 किग्रा. मात्रा प्रति हैक्टेयर की दर से डालना एक प्रभावी उपाय है।
किसी भी कृषि रक्षा छिड़काव मशीन के चुनाव का आधार उसके द्वारा उत्पन्न बूंदों के आकार एवं मशीन द्वारा किसी निश्चित समय में किये गये कार्य पर निर्भर करता है। यदि रसायन छिड़कने वाली मशीन द्वारा उत्पन्न बूंदों का आकार छोटा होगा तो रसायनों का वितरण पौधों के वायवीय भागों पर समान रुप से अच्छी तरह होगा। एयरोब्लास्ट स्प्रेयर एक ऐसा ही यंत्र है जो लगभग 50 फीट ऊँचाई एवं 70 फीट क्षैतिज दूरी तक छोटी-छोटी बूंदों के रुप में एक समान छिड़काव कर सकता है। इस यंत्र में ब्लोअर, डिलीवरी आउटलेट, रोटरी अटैचमेन्ट तथा रोटरी नोजल को चालक सीट से ही नियंत्रित किया जाता है। साथ ही चालक की छिड़काव की दिशा भी सीट से ही नियंत्रित होती है। यह यंत्र खेत में खड़ी गन्ने की फसल में फफूंदनाशी छिड़काव हेतु बहुत ही उपयोगी एवं आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद मशीन है।
लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, निदेशक ट्रेनिंग और प्लेसमेंट, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।