फसल के उत्पादन में जैव उर्वरक एवं उनका महत्व

                 फसल के उत्पादन में जैव उर्वरक एवं उनका महत्व

                                                                                                                                                                           डॉ0 आर. एस. सेंगर

नाईट्रोजन स्थिर करने वाले जैव उर्वरकः इसमें मुक्त बैक्टीरिया जैसे की एजोटोबॅक्टर, एनाबिना वायवीय व क्लोस्ट्रीडियम अवायवीय, सहजीवी (Symnbiotic) राइजोबियम, फ्रैन्क्रिया, साहचर्य सहजीवी - एजोस्पाईरिलम एवं एन्डोफाइटिक ग्लुकोनो सिटोबैक्टर बैक्टीरिया मुख्य रूप से आते हैं।

एजोटोबैक्टरः एजोटोबैक्टर जीवाणु खाद्यान्न फसलों के साथ-साथ सब्जी वाली फसलों की जड़ों में वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन को स्थिर करने का कार्य करते हैं। इसके साथ ये पौधों में वृद्धि करने वाले पदार्थ जैसे कि विटामिन बी, IAA, GA. थाईमिन, राइबोफ्लेवीन प्रोईरिडोक्सीन व पेन्टोथेनिक एसिड पैदा करते हैं। इसके अलावा ये पौधों की बीमारियों को जैव नियंत्रक के रूप में भी रोकते हैं। इसके उपयोग से फसल पैदावार में 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।

इनके द्वारा विभिन्न फसलों में 20-40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर तक नाईट्रोजन स्थिर होती है जिससे लगभग 20 प्रतिशत नाइट्रोजन उर्वरकों की खपत कम हो जाती है। इसके अलावा ये पौधों में फफूंदी द्वारा होने वाले कई रोगों के लिए प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करते हैं एवं बीजों की अंकुरण क्षमता भी बढ़ाते हैं। राइजोबियम यह जीवाणु मुख्यतः दलहनी फसलों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण का कार्य करते हैं। दलहनी फसलों की जड़ों में कुछ गांठें पाई जाती हैं और इन गांठों में उपस्थित जीवाणु वायुमंडल में उपलब्ध नाईट्रोजन का स्थिरीकरण करके पौधों को पोषण।

                                                                              

सोयाबीन फसल के लिए 3 वर्षों में एक बार खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करना उत्पादन स्थिरता एवं आर्थिक की दृष्टि से लाभकारी होता हैं। इसी प्रकार एकल किस्म की खेती के स्थान पर न्यूनतम 2-3 किस्मों की खेती करने में जोखिम कम होती हैं। अतः कृषकगण यथासंभव ध्यान दे ।

खेत की तैयारीः कृषकों को सलाह है कि 3 वर्षों में एक बार अपने खेत की ग्रीष्मकालीन - गहरी जुताई करें और विपरीत दिशाओं में दो बार कल्टीवेटर एवं पाटा चलाकर खेत को तैयार करें। विगत वर्षों में गहरी जुताई किये जाने पर केवल विपरीत दिशाओं में कल्टीवेटर (बखरनी) - एवं पाटा चलाकर खेत तैयार करने की सलाह हैं। कार्बनिक खाद का प्रयोग पोषण प्रबंधन के लिए, अंतिम बखरनी से पूर्व गोबर की खाद (5/40 टन/हे.) या मुर्गी खाद (2.5 टन/हे.) को खेत में फैलाकर अच्छी तरह मिला दें।

वर्षा जल के समुचित उपयोग हेतु सब सॉइलर का प्रयोग संभव होने पर 5 वर्ष में एक बार अपनी सुविधा अनुसार अंतिम बखरनी से पूर्व 40 मीटर के अंतराल पर सब सॉइलर चलायें, जिससे वर्षा जल खेत की गहरी सतह तक जा सके और सूखे की अनपेक्षित स्थिति फसल को नमी मिलती रहे। साथ ही इससे मिट्टी की फसल उत्पादन में सूक्ष्म जीवों का अधिक महत्व इसलिए है क्योंकि सूक्ष्म जीवों द्वारा पौधों को वातावरण में उपस्थित नाइट्रोजन, मृदा में उपस्थित पोषक तत्व की उपलब्धता, साथ ही सूक्ष्म जीवों द्वारा मृदा में डाले गये खरपतवारनाशक, कीटनाशक, फफूंदनाशक आदि रसायनों को भी अपघटन प्रक्रिया द्वारा इनका प्रभाव कम करने में भी सहायक होते हैं।

इस समय फसलों की उत्पादकता में ठहराव तथा गिरावट का दौर शुरू हो चुका है। अच्छा उत्पादन और अधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए हमें संतुलित रासायनिक उर्वरकों के साथ-साथ अच्छे कार्बनिक खाद तथा जैव उर्वरकों का उपयोग भी करना होगा। जैव उर्वरक सस्ते व वातावरण को नुकसान नहीं पहुंचाने वाले होते हैं। जैव उर्वरकों को उनकी प्रकृति व कार्य के आधार पर मुख्य रूप से पांच श्रेणियों में बांटा जा सकता है - प्रदान करते हैं ये 60 से 120 किलो नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर मृदा में एकत्रित कर सकते हैं। इनकी सात मुख्य प्रजातियां होती हैं जो दलहनी फसलों के लिए विशिष्टकृत होती हैं जैसे राइजोबियम लेग्युमिनोसेरम मटर के लिए, राईजोबियम मेलिलोटाई मैथी के लिए और राइजोबियम फेजियालाई फ्रेंचबीन के लिए।

                                                                           

एजोस्पाईरिलमः यह पौधों की जड़ों में चिपके रहते हैं। यह भी नाइट्रोजन स्थिरीकरण के अलावा पौधों में वृद्धि करने वाले पदार्थ उत्पन्न करते हैं। ये 10 से 40 किलो तक नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर स्थिर करके 20 से 25 प्रतिशत नाइट्रोजनयुक्त रासायनिक उर्वरकों की बचत करते हैं और कवक मिट्टी में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील फास्फोरस में बदल देते हैं जिसको पौधे आसानी से अवशोषित कर लेते हैं।

स्फुर विलयकारीर: स्फुर विलयकारी के रूप में जाना जाने वाला महत्त्वपूर्ण माईकोराइजा का निर्माण कवक के द्वारा होता है। ये पौधों की जड़ व मृदा के बीच में प्रमुख कड़ी भी भूमिका निभाते हैं। माइकोराइजा पौधों को पोषक तत्व उपलब्ध कराकर बदले में कार्बन ग्रहण करती है। ये पौधों को विपरीत परिस्थितियों जैसे कि लवणता, भारी धातु प्रदूषण से भी बचाने में सहायता करते हैं।

पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देने वाले बैक्टीरिया:  पीजीपीआर इनोकुलेंट पौधों की वृद्धि को पौधों में स्फुर घोलक जैव उर्वरक बहुत सारे बैक्टीरिया होने वाली बीमारियों की रोकथाम, उन्नत पोषक तत्व कठोर परत तोड़ने में तथा नमी का संचार अधिक समय तक रखने में सहायता मिलती है। किस्मों का चयनः अपने जलवायु क्षेत्र के लिए अनुकूल विभिन्न समयावधि में पकने वाली न्यूनतम 2-3 नोटिफाइड सोयाबीन की किस्मों का चयन कर बीज उपलब्धता सुनिश्चित करें। ऐसे किसान जो सोयाबीन के बाद आलू, प्याज, लहसुन जैसी फसल लेकर गेहूं/चना लगाते हों, सोयाबीन की शीघ्र समयावधि वाली किस्म को लगायें. उसी प्रकार वर्ष में केवल दो फसलें लेने वाले कृषक मध्यम / अधिक समय परिपक्कता अवधि वाली किस्मों का चयन करें। पादप हार्मोन उत्पन्न करते हैं। पीजीपीआर (PGPR) को पादप हार्मोन उत्पन्न करने वाले व जैव उद्दीपक के नाम से जाना जाता है। ये इन्डोल एसिटिक अम्ल, साईटोकायनिन, जिर्बेलीन एवं इथाईलिन रोधक उत्पन्न करते हैं।

जैव उर्वकों को उपयोग करने की विधि बीजोपचार: एक बर्तन में 250 मिली पानी में 50 ग्राम गुड़ और 50 मिली जैव उर्वरक मिलाकर अच्छी तरह घोलते हैं। इसके बाद एक बर्तन में 10 किलोग्राम बीज लेकर उसमें घोल अच्छी तरह मिलाते हैं तथा बीजों को हाथों से उलटते रहते हैं। इस बीज को छायादार स्थान में 20-30 मिनट सुखाकर बुवाई की जाती है।

                                                                    

पैदावार में वृद्धि होती है।

पर्यावरण मित्र होते हैं।

ये सस्ते होते हैं।

एजोटोबैक्टर से उपचारित पौधों में सूत्रकृमि की बीमारी से बचने की क्षमता होती है।

मिट्टी की बनावट व उर्वराशक्ति बढ़ती है।

मिट्टी से होने वाले रोगों की रोकथाम करते हैं।

बीजों की अंकुरण क्षमता में वृद्धि होती है।

यह उर्वरक एकदम अपना प्रभाव नहीं दिखाते, परन्तु कुछ समय उपरान्त परिणाम बहुत अच्छे होते हैं।

जैव उर्वरकों को फसल में नाइट्रोजन उपलब्ध कराने व फास्फोरस विलेयक के रूप में ही प्रयोग किया जाता है किन्तु इनके उपयोग से फसलों को अनेक वृद्धि नियामक रसायन भी मिलते हैं जिन्हें साधारण पौधे सीधे ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मृदा की उर्वराशक्ति लगातार क्षीण होती जा रही है जोकि टिकाऊ खेती के लिए खतरनाक साबित हो रही है। टिकाऊ कृषि उत्पादन हेतु आज आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे मृदा स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए जैव उर्वरकों का योगदान भुला सकते हैं क्योंकि ये पर्यावरण के मित्र भी हैं और हर प्रकार से अपना प्रभाव, बिना प्रर्यावरण को प्रदूषित करे, इसकी उर्वरकता बढ़ाने में सहयोग करते हैं। भा. कृ. अनु. प. भारतीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान की सलाह सोयाबीन लगाने वाले किसान खेत की जुताई करें।

अंकुरण परिक्षणः बीज की गुणवत्ता (न्यूनतम 70 प्रतिशत अंकुरण) एवं बीज दर निर्धारण हेतु उपलब्ध बीज का अंकुरण परिक्षण करें।

बोवनी / दूरीः उत्पादन की दृष्टि से प्रति हेक्टेयर पौध संख्या अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु है। अतः सोयाबीन फसल के लिए अनुशंसित 45 सेमी कतारों पर तथा 5- 10 सेमी पौधों की दूरी पर बोवनी करें।

बीज दरः सोयाबीन में बड़े आकार के बीज की तुलना में छोटे या माध्यम आकार के बीज की अंकुरण क्षमता अधिक होती हैं। अतः न्यूनतम 70 प्रतिशत बीज अंकुरण, बीज का आकार एवं अनुशंसित दूरी को ध्यान में रखकर 60-75 किग्रा / हे. बीज दर अपनाना उत्पादन एवं आर्थिक दृष्टि से लाभकारी होगा।

बुवाई विधिः कृषकों को सलाह है कि जहाँ तक संभव हो सोयाबीन की बोवनी बी.बी.एफ. (चौड़ी क्यारी प्रणाली) या (रिज फरो पद्धति) कूढ़ मेड़ प्रणाली से करें।

मशीनीकरणः सोयाबीन की खेती के लिए उपयोगी अन्य यंत्र (सीड ड्रिल, स्प्रेयर, आदि) की मरम्मत कर समय पर उपयोग योग्य रखे।

आदान उपलब्धताः सोयाबीन की खेती के लिए आवश्यक आदान (बीज, खाद उर्वरक, फफूंदनाशक, कीटनाशक, खरपतवारनाशक, जैविक कल्चर आदि) का क्रय एवं उपलब्धता सुनिश्चित करें।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।