बासमती धान की नई किस्म की खेती करें और कमाए अच्छा मुनाफा

     बासमती धान की नई किस्म की खेती करें और कमाए अच्छा मुनाफा

                                                                                                                               प्रोफेसर शालिनी गुप्ता, डॉ0 वर्षा रानी एवं प्रोफेसर आर. एस. सेंगर

बासमती धान की नई किस्म की खेती कर कमाए अच्छा मुनाफा  हाल के वर्षों में विकसित की गई बासमती धान की किस्मों के माध्यम से चावल का उत्पादन काफी बढ़ा है। साथ ही भारतीय किसानों के सामने धान में लगने वाले रोगों की रोकथाम के लिए पेस्टिसाइड्स के इस्तेमाल से चावल एक्पोर्ट में दिक्कत आ रही है। ऐसे में अगर किसान  पेस्टिसाइड्स का प्रयोग न करें तो रोगों से फसल खराब होती है। अब इस समस्या के समाधान के लिए आईआरआई पूसा ने बासमती की तीन नई प्रजातियां विकसित की हैं, जो ज्यादा उपज के साथ ही रोगमुक्त भी होंगी।

                                                               

बासमती धान से साल 2023-24 के दौरान 40,000 करोड़ रुपये प्रदान किये हैं। बासमती धान की किस्मों में अधिक रोग लगने के कारण किसानों को ज्यादा कीटनाशक दवाओं का छिड़काव करना पड़ रहा है। अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देश ही नहीं, बल्कि दूसरे छोटे देश भी सेहत से जुड़े मामलों के कारण केमिकल अवशेष मुक्त बासमती चावल की मांग करते नजर आ रहे हैं।

भारतीय किसान के सामने कीटनाशकों की चुनौती से निपटने की एक बड़ी समस्या है-  धान की फसल में यदि पेस्टिसाइड का प्रयोग नही किया जाये तो धान की फसल खराब होने लगती है और इसका प्रयोग करने से फसल उत्पाद मानक के विपरीत होते है और फिर चावल एक्सपोर्ट में दिक्कत आने लगती है ,क्योकि किसान बासमती धान में जीवाणु झुलसा रोग के लिए इस रोग को कंट्रोल के लिए स्ट्रेप्टोसाइकलिन और झोका रोग के लिए हेक्साकोनाजोल, प्रोपीकोनाजोल, अथवा ट्राईसाइकलोजोल का इस्तेमाल करता हैं।

बासमती आयातक देशों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ, द्वारा बासमती चावल में इन रसायनों के उपयोग को लेकर बहुत चिंता है और कुछ मामलों में आयातकों द्वारा बासमती चावल की खेपों को लेने से भी इनकार करते है। हाल के वर्षों के दौरान यूरोपीय संघ ने ट्राइसाइक्लाजोल, नेक ब्लास्ट आदि रोगों के नियंत्रण में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली फंगीसाइड के एमआरएल (न्यूनतम सीमा) को घटाकर 0.01 पीपीएम तक कर दिया है। इसलिए, बासमती चावल के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपनी बादशाहत को बनाए रखने के लिए इन समस्याओं का तत्काल समाधान जरूरी हो गया है।

बासमती धान की नई किस्में

धान की फसल में लगने वाले रोगो की परेशानी से छुटकारा पाने के लिए आईआरआई पूसा के द्वारा बासमती की तीन नई प्रजातिया विकसित की गई हैं। इनमें पूसा बासमती 1847, पूसा बासमती 1885, और पूसा बासमती 1886 आदि शामिल हैं और यह किस्में मुख्य रूप से जीवाणु झुलसा रोग  (वैक्टिरियल ब्लाइट ) और झोका रोग  (ब्लास्ट) के प्रति रोगरोधी क्षमता का विकास किया गया है और उपज क्वालिटी में काफी अच्छी है। इन तीन प्रजातियों को लेकर किसानों में भी काफी उत्सुकता व्याप्त है, क्योकि बासमती धान से मिल रहे लाभ के कारण देश में लगभग हर साल बासमती का लगभग 10 फीसदी क्षेत्र बढ़ता जा रहा है।

पूसा बासमती 1885 किस्म जो लोकप्रिय बासमती किस्म पूसा बासमती 1121 में सुधार कर तैयार की गई है।

इस किस्म में भी ब्रीडीग के माध्यम से बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट रोग से लड़ने की क्षमता विकसित की गई है। इन रोगों से लड़ने के लिए पूसा बासमती 1887 की तरह जीन का प्रत्यारोपण किया है।  इसमें पूसा बासमती 1121 के समान लंबे पतले और स्वादिष्ट गुणवत्ता वाला चावल है ,जो यह मध्यम अवधि की बासमती चावल 135 दिनों में पक कर तैयार हो जाता है। इसकी उपज क्षमता प्रति एकड़ 18.72 क्विंटल है। पंजाब के किसानों ने 22 क्विंटल प्रति एकड़ तक उत्पादन भी प्राप्त किया है।

पूसा बासमती 1886 लोकप्रिय बासमती चावल की किस्म है, पूसा बासमती 6 में कुछ जरूरी  सुधार कर इसे तैयार किया गया है। इस किस्म में बैक्टीरियल ब्लाइट प्रतिरोध के लिए दो जीन हैं और झोका यानि ब्लास्ट रोग के लिए दो जीन, ब्रीडिंग के माध्यम से विकसित किए हैं। यह किस्म 145 दिनों में तैयार होती है और इसकी औसत उपज 18 क्विंटल प्रति एकड़ है। इस किस्म को तैयार होने में अन्य दो किस्मों की तुलना में अधिक समय यानी 155 दिन का समय लगता है, लेकिन चावल की अच्छी गुणवत्ता के चलते इस अतिरिक्त समय की भरपाई हो जाती है, और इससे किसान अधिक मुनाफा प्राप्त कर पाते है।

पूसा के द्वारा रोगमुक्त बासमती की 3 नई किस्में विकसित की गई हैं, इससे किसानों की बंपर कमाई सम्भव हो सकेगी।

हाल के वर्षों में विकसित बासमती किस्मों के जरिए चावल का उत्पादन तो बढ़ ही रहा है, लेकिन इसके साथ ही भारतीय किसानों को रोग की रोकथाम के लिए पेस्टिसाइड्स के प्रयोग करने से बासमती चावल का एक्पोर्ट में दिक्कत आ रही है। अगर पेस्टिसाइड्स का प्रयोग न करें तो रोगों से फसल खराब हो सकती है। इस समस्या के समाधान के लिए आईआरआई पूसा ने बासमती की तीन नई प्रजातियां विकसित की हैं, जो ज्यादा उपज के साथ ही रोगमुक्त भी होती हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा नई दिल्ली (IARI) द्वारा विकसित की गई बासमती किस्मों के चावल आज वैश्विक स्तर पर भारी डिमांड के कारण आज अपनी एक अलग ही पहचान बना चुकी है। इस साल फरवरी में आयोजित किए गए आईआरआई के दीक्षान्त समारोह में बताया गया कि बासमती धान की किस्मों की खेती खूब की जा रही है। अकेले 95 फीसदी क्षेत्र में आईआरआई द्वारा विकसित बासमती धान पूसा बासमती 1121, पूसा बासमती 1718 और 1509 की खेती किसान कर रहे हैं।

बासमती धान से साल 2023-24 के दौरान 40,000 करोड़ रुपये अर्जित किए गए हैं। बासमती धान की कुछ किस्मों में अधिक रोग लगने के कारण उन पर ज्यादा कीटनाशक छिड़काव करना पड़ता है। दरअसल, अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के देश ही नहीं, बल्कि दूसरे छोटे देश भी अब सेहत से जुड़े मामलों की वजह से केमिकल अवशेष मुक्त बासमती चावल की मांग करने लगे हैं।

बासमती किस्म में रोग एक बड़ी समस्या

                                                       

भारतीय किसानों के सामने कीटनाशकों की चुनौती से निपटने की बड़ी समस्या आ गई है। ऐसे में अगर किसान पेस्टिसाइड्स का प्रयोग न करें तो धान की फसल रोगों से खराब हो जाती है और यदि करें तो यह फसल वैश्विक मानकों के विपरीत हो जाती है और फिर इस चावल का एक्सपोर्ट करने में काफी समस्या सामने आती है. क्योकि किसान बासमती धान में जीवाणु झुलसा रोग के लिए के कंट्रोल के लिए स्ट्रेप्टोसाइकलिन और झोका रोग के लिए हेक्साकोनाजोल, प्रोपीकोनाजोल, अथवा ट्राईसाइकलोजोल का आदि रसायनों का प्रयोग करते हैं।

बासमती आयातक देशों, विशेष रूप से यूरोपीय संघ, के द्वारा बासमती चावल में इन रसायनों के उपयोग को लेकर चिंता गहरी जताई जा रही है और कुछ मामलों में आयातकों द्वारा बासमती चावल की खेपों को लेने से भी इनकार किया जा रहा है। हाल के वर्षों के दौरान यूरोपीय संघ ने ट्राइसाइक्लाजोल, नेक ब्लास्ट रोग के नियंत्रण में सबसे अधिक उपयोग की जाने वाली फंगीसाइड के एमआरएल (न्यूनतम सीमा) को घटाकर 0.01 पीपीएम कर दिया है. इसलिए, बासमती चावल के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अपनी बादशाहत बनाए रखने के लिए इन समस्याओं का तत्काल प्रभावी समाधान करना बहुत जरूरी है।

देश की बासमती बादशाहत को बरकरार रखेंगी यह तीन किस्में 

रोगो की परेशानी से निपटने के लिए आईआरआई पूसा के द्वारा बासमती की यह तीन नई प्रजातिया विकसित की गई हैं - पूसा बासमती 1847, पूसा बासमती 1885, और पूसा बासमती 1886। इन सभी किस्मों में मुख्य रूप से जीवाणु झुलसा रोग  (वैक्टिरियल ब्लाइट ) और झोका रोग  (ब्लास्ट ) के प्रति रोगरोधी क्षमता का विकास किया गया है और इनकी उपज क्वालिटी भी अच्छी है। इन तीन प्रजातियों को लेकर किसानों में भी काफी उत्सुकता देखी जा रही है, क्योकि बासमती धान से मिल रहे लाभ के कारण हर साल बासमती का लगभग 10 फीसदी क्षेत्र बढ़ रहा है।

बासमती की किस्म पूसा 1847 रोग मुक्त है-

                                                            

आईएआरआई पूसा के अनुसार इसमें पूसा बासमती 1847, लोकप्रिय बासमती धान की किस्म 1509 में सुधार करके बनाई गई थी। इस किस्म में बैक्टीरियल ब्लाइट से लड़ने के लिए ब्रीडीग के माध्यम से दो जीन और ब्लास्ट रोग के लिए लड़ने के 2 जीन निरूपित किए गए हैं, जिससे इस किस्म में इन दोनो रोगों से लड़ने की क्षमता उपलब्ध होती है। यह जल्दी पकने वाली और अर्ध-बौनी बासमती चावल की एक किस्म है जो 125 दिनों में तैयार हो जाती है और इसकी औसत उपज 22 से 23 क्विंटल प्रति एकड़ है। जबकि पंजाब के किसानों के द्वारा इस प्रजाति की उपज 31 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त की गई है। इस किस्म को वर्ष 2021 में व्यावसायिक खेती के लिए जारी किया गया था।

रोग मुक्त और उच्च गुणवत्ता वाली बासमती 1885 किस्म

                                                                           

पूसा बासमती 1885 किस्म को लोकप्रिय बासमती किस्म पूसा बासमती 1121 में अपेक्षित सुधार कर बनाई गई है। इस किस्म में भी ब्रीडिंग के माध्यम से बैक्टीरियल ब्लाइट और ब्लास्ट रोग से लड़ने की क्षमता विकसित की गई है। इन रोगों से लड़ने के लिए पूसा बासमती 1887 की तरह जीन का प्रत्यारोपण किया गया है। इसमें पूसा बासमती 1121 के समान लंबे, पतले और स्वादिष्ट गुणवत्ता वाला चावल है। यह मध्यम अवधि की बासमती चावल 135 दिनों में पक कर तैयार होने वाली प्रजाति है और इसकी उपज क्षमता प्रति एकड़ 18.72 क्विंटल है। लेकिन पंजाब के किसानों ने इस प्रजाति से 22 क्विंटल प्रति एकड़ तक की पैदावार को भी लिया है।

पूसा बासमती 1886 किस्म रोग मुक्त

                                                         

पूसा बासमती 1886 एक लोकप्रिय बासमती चावल की किस्म है। पूसा बासमती 6 में अपेक्षित सुधार कर इस किस्म को विकसित किया गया है। इस प्रजाति में बैक्टीरियल ब्लाइट प्रतिरोध के लिए दो जीन हैं और झोका यानि ब्लास्ट रोग के लिए दो जीन, ब्रीडिंग के माध्यम से विकसित किए गए हैं। यह किस्म 145 दिनों में पककर तैयार हो जाती है और इसकी औसत उपज 18 क्विंटल प्रति एकड़ तक प्राप्त हो जाती है। इस प्रजाति में अन्य दो प्रजातियों की तुलना में अधिक समय 155 दिन लगता है, लेकिन चावल की अच्छी गुणवत्ता कारण इसकी इस कमी की भरपाई भी हो जाती है।

बीज प्राप्त करने के लिए संपर्क करें

बासमती की इन किस्मों के बीज प्राप्त करने के लिए किसान बासमती निर्यात विकास फाउंडेशन (BEDF) मेरठ और भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान IARI दिल्ली के बीज केन्द्र से संपर्क कर सकते हैं।

खेती-बाड़ी एवं नई तकनीकी से खेती करने हेतु समस्त जानकारी के लिए हमारी वेबसाईट किसान जागरण डॉट कॉम को देखें। कृषि संबंधी समस्याओं के समाधान एवं हेल्थ से संबंधित जानकारी हासिल करने के लिए अपने सवाल भी उपरोक्त वेबसाइट पर अपलोड कर सकते हैं। विषय विशेषज्ञों द्वारा आपकी कृषि संबंधी जानकारी दी जाएगी और साथ ही हेल्थ से संबंधित सभी समस्याओं को आप लिखकर भेज सकते हैं, जिनका जवाब हमारे डॉक्टरों के द्वारा दिया जाएगा।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।