आलू की फसल में पोषक तत्वों का महत्व      Publish Date : 19/04/2024

                        आलू की फसल में पोषक तत्वों का महत्व

                                                                                                                        डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 रेशु चौधरी एवं गरिमा शर्मा

आलु की फसल की उचित बढ़ोत्तरी और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए कुल 17 पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। इन तत्वों में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम द्वितियक एवं लोहा, जस्ता, तांबा, निकिल, मैगनीज तथा मॉलिब्डेनम सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं। गेहहूँ एवं धान की अपेक्षा आलू की फसल में प्रति इकाई समय तथा क्षेत्रफल अधिक शुष्क पदार्थ उत्पन्न करने की क्षमता होती है। इसलिए आलू में पोषक तत्वों की खपत अन्य फसलों की तुलना में सामान्य रूप से अधिक ही होती है। उपरोक्त समस्त पोषक तत्व प्राकृतिक खाद से भी उपलब्ध हो जाते हैं, परन्तु उचित पैदावार को प्राप्त करने के लिए और खेत की मृदा में जैविक खाद की मात्रा उचित अनुपात में उपलब्ध नही होने के चलते भी रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करना भी अति आवश्यक हो जाता है।

    भारत में आलू का उत्पादन उत्तर प्रदेश राज्य के मैदानी क्षेत्रों में सबसे अधिक किया जाता है। सघन फसल उत्पादन के चलते इन क्षेत्रों की मिट्टी पोषक तत्वों की कमी हो जाती है। इसके अतिरिक्त खेतों में जैविक खादों का बेहद कमी के साथ किए जाने के चलते मृदा में पाये जाने वाले कार्बन की मात्रा सामान्य से काफी नीचे पहुँच जाती है। अतः इस स्थिति में फसलों का उचित उत्पादन प्राप्त करने के लिए और इन तत्वों की पूर्ति करने के लिए खाद तथा उर्वरकों की आवश्यकता होती है।

आलू की फसल में नाइट्रोजन की महत्व

                                                                  

    आलू की फसल में नाइट्रोजन का प्रयोग करने से आलू के कंदों की संख्या और उनके आकार में वृद्वि होती है। पौधों के उचित विकास तथा इसकी पत्तियों की संख्या एवं आकार में नाइट्रोजन एक महत्वपूर्ण रोल अदा करती है। नाइट्रोजन की कमी के चलते इससे आलू के पौधों की वृद्वि रूक जाती है और इसकी कमी आने पर पौधे निचली पत्तियों की ओर पीलापन बढ़ने लगता है और बाद पूरा का पूरा पौधा ही पीला पड़ जाता है।

नाइट्रोजन की कमी के चलते आलू का पौधा अपने लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन का निर्माण नही कर पाता है, जिससे आलू का आकार छोटा रह जाता है और आलू की उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस स्थिति के बिलकुल विपरीत यदि मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो तो आलू के पौधों में कंद देर से बनते हैं तथा उनकी बढ़वार भी अधिक होती है तथा कंदों का आकार छोटा रह जाता है। इसके साथ ही खेत में नाइट्रोजन की अधिक मात्रा होने के कारण आलू के पौधों की परिपक्वता भी देरी से ही होती है।

इससे फसल की कुल परिपक्वता की अवधि में वृद्वि होती है। अतः आलू की उचित उत्पादकता प्राप्त करने के लिए मृदा की जांच के आधार पर ही नाइट्रोजन की उचित डोज देनी चाहिए।     

आलू की फसल में जैविक खाद का महत्व

                                                            

रासायनिक उर्वरकों के साथ जैविक खाद का प्रयोग करने से आलू की अधिक पैदावार होती है। इसके अलावा आलू के कंद की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। जैविक खाद न केवल भूमि को उपजाऊ बनाए रखती है, बल्कि भौतिक संरचना में भी सकारात्मक योगदान देती है। जैविक खाद नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम उर्वरक की दक्षता बढ़ाने में भी मदद करती है।

अतः कार्बनिक खाद के पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने पर रासायनिक उर्वरक के प्रयोग में कमी की जा सकती है। खेत में रासायनिक खाद और कीटनाशक कम से कम प्रयोग करना चाहिए। कार्बनिक खाद में गोबर की खाद के अलावा अन्य जैविक खादों जैसे वर्मीकम्पोस्ट, पोल्ट्री की खाद, नीम की खली इत्यादि का अधिक प्रयोग करके आलू की उपज तथा कन्दों की गुणवत्ता में वृद्धि होती है। जैविक खाद से तैयार आलू की फसल को बाजार में अधिक मूल्य पर बेचा जा सकता है।

नाइट्रोजनयुक्त उर्वरक का प्रयोग

बुआई के समय यूरिया के अधिक इस्तेमाल करने से आलू के अंकुर को हानि पहुंच सकती है। अतः आलू में मिट्टी चढ़ाते समय यूरिया देना अधिक लाभदायक होता है। जहां पर सिंचाई का समुचित प्रबंध है वहां पर नाइट्रोजन का आधा भाग बुआई के समय तथा शेष भाग मिट्टी चढ़ाते समय देना अधिक लाभदायक है। ध्यान इस बात का रहे कि अमोनियम नाइट्रेट या यूरिया आलू के कंद से 5 सेंटीमीटर दूरी पर बगल में या पोटेशियम का महत्व नीचे डालकर अच्छी तरह से मिट्टी से मिला देना चाहिए। आलू में नाइट्रोजन की मात्रा आल की किस्मों के आधार पर अलग-अलग होती है। अतः नाइट्रोजन उर्वरक की मात्रा आलू की किस्मों के अनुसार ही प्रयोग करनी चाहिए।

आलू में फॉस्फोरस का महत्वः

फॉस्फोरस आलू के पौधों की जड़ों के विकास में मदद करता है। इसका प्रयोग करने से आलू की फसल जल्दी तैयार होती है। यह आलू के कन्दों की संख्या को बढ़ाता है। फॉस्फोरस का महत्व खाने वाले आलू की तुलना में बीज हेतु आलू पैदा करने में ज्यादा अहम होता है। इसकी कमी से आलू की पत्तियों का रंग गहरा हरा या बैंगनी रंग का हो जाता है। अधिक कमी होने पर आलू की पत्तियाँ खुल नहीं पाती हैं और पत्तियों पर बैंगनी रंग के धब्बे आ जाते हैं। फलस्वरूप आलू की पैदावार कम हो जाती है। फॉस्फोरस की उचित मात्रा देने से फसल जल्दी ही तैयार हो जाती है।

                                                                     

आलू की फसल के लिए सिंगल सुपर फॉस्फेट या डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) अन्य फॉस्फोरसयक्त उर्वरकों से अधिक प्रयोग किया जाता है। प्रयोग किया गया फॉस्फेट स्थिरीकरण हो जाता है और 85 प्रतिशत भाग मिट्टी में मिल जाता है जिसका स्थिरीकरण हो जाता है और पौधे इसका केवल 10 से 15 प्रतिशत भाग ही उपयोग कर पाते हैं। इसी के चलते पौधों को फॉस्फोरस की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है। अतः मिट्टी की जांच के बाद ही इसकी मात्रा तय करनी चाहिए। फास्फोरस उर्वरक की संपूर्ण मात्रा बुआई के समय नाली में कंद बीज के पास, जहां पौधों की क्रियशील जड़ें अधिक मात्रा में होती हैं, उसके समीप ही देना अधिक लाभकारी पाया गया है।

आलू में पोटेशियम का महत्व

यह तत्व आलू के पौधों को स्वस्थ रखने के साथ-साथ आलू के पौधों को सूखे और पाले से भी बचाता है। इसकी कमी से पत्तियों के किनारे भूरे और काले रंग के हो जाते हैं बहुत अधिक कमी होने पर आलू का समस्त पौधा पूरी तरह से सूख भी जाता है। पोटेशियम की प्रचुर मात्रा में होने से आलू में कीट व रोगों का प्रकोप कम होता है। उचित समय पर पोटेशियम का उपयोग करने से आलू में बड़ें आकार के कंदों की संख्या बढ़ जाती है जो कि आलू की फसल के भोज्य कंदों का बाजार मूल्य अधिक दिलाने में सहायक होती है।

पोटेशियम उर्वरक का प्रयोग

                                                       

भोज्य फसल के लिए पोटेशियम उर्वरक की दो तिहाई मात्रा बुआई के समय नाली में बीज कंद के पास या नीचे लगभग कंद से 5 सेंटीमीटर की दूरी पर होनी चाहिए। शेष बचा हुआ भाग बुआई के लगभग 30 दिनों बाद आलू की फसल में मिट्टी चढ़ाते समय देना अधिक लाभदायक होता है। बीज आलू की फसल के लिए भोज्य आलू की संस्तुत मात्रा से 25 प्रतिशत कम उर्वरक की आवश्यकता होती है और इसकी सम्पूर्ण मात्रा बुआई के समय ही बीज फसल में देनी चाहिए। अगेती किस्मों के बड़े आकार के आलू लेने हेतु अधिक पोटेशियम की आवश्यकता होती है।

आलू में सूक्ष्म पोषक तत्वों का महत्व

ऐसे क्षेत्रों में जहाँ रासायनिक उर्वरकों के साथ गोबर की खाद या कम्पोस्ट की खाद का प्रयोग भी किया जाता है, वहां पर सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी नहीं होती है। इसके विपरीत जहां गोवर की खाद या कम्पोस्ट की खाद कम या इसका प्रयोग नही किया जाता है, वहां पर सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता महत्वपूर्ण हो जाती है। मिट्टी की जांच के आधार पर सूक्ष्म पोषक तत्वों की बुआई के समय या बीज आलू को सूक्ष्म पोषक तत्वों में डुबोकर छाया में सुखाकर बुआई करने से इनकी कमी को पूरा किया जा सकता है। खड़ी फसल में इसकी कमी देखने पर पत्तियों पर छिड़काव सही उपाय है।

लेखकः प्रोफेसर आर. एस. सेंगर, निदेशक प्रशिक्षण, सेवायोजन एवं विभागाध्यक्ष प्लांट बायोटेक्नोलॉजी संभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय मेरठ।