जीरे की व्यवसायिक खेती      Publish Date : 18/04/2023

                                                                              जीरे की व्यवसायिक खेती

                                                                                                                          डॉ0 आर. एस. सेंगर, डॉ0 शालिनी गुप्ता एवं मुकेश शर्मा

                   

जीरा अपने आप में एक औषधि से कम नही है जो कि पेट और पाचन तन्त्र से जुड़ी समस्याओं और हमारे प्राचीन ग्रन्थ आयुर्वेद के अन्तर्गत भी इसके बहुत से उपयोगों का वर्णन किया गया है।

मसाले वाली फसलों में जीरा एक प्रमुख फसल होती है। जीरा के बीजों को मसाले के रूप में उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीरे को विभिन्न औषधियों के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। जीरे के बीजों में वाष्पशील तेल उपलब्ध रहता है। जीरे में उपस्थित सुगन्ध इसके अन्दर उपस्थित सुगन्धित पदार्थ क्यूमिनोल के कारण होती है।

भूमिः- जीरा की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी को उचित माना जाता है।

जीरे की उन्नत किस्मेंः-

आर. जेड-19:- जीरे की यह प्रजाति लगभग 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। इसके दानें बड़े, आकर्षक तथा गहरे भूरे रंग के होते हैं। दानों में 2.3-3.0 प्रतिशत वाष्पशील तेल उपलब्ध पाया जाता है।

आर. एस.-1:- जीरे की यह प्रजाति शीघ्र पकने वाली होती है, जो कि लगभग 110 से 120 दिनों के अन्दर पककर तैयार हो जाती है। इस किस्म के दाने बड़े तथा रोयेंदार होते हैं। यह एक रोगरोधी किस्म होती है जो कि हल्की मृदाओं के लिए भी उपयुक्त होती है। इस प्रजाति की औसत पैदावार 6 से 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होती है।

खाद एवं उर्वरकः- जीरे का अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए 20 से 25 टन गोबर अथवा कम्पोस्ट खाद के साथ 40 से 50 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 25 से 30 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा 30 से 40 कि.ग्रा. तक पोटाश की प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है।

खेत की जुताई से पूर्व गोबर अथवा कम्पोस्ट खाद की सम्पूर्ण मात्रा को खेत में समान रूप से बिखेर कर खेती की जुताई कर देनी चाहिए। फॉस्फोर तथा पोटाष मी पूरी मात्रा एवं नाइट्रोजन की आधी मात्रा खेत की अन्तिम जुताई के साथ ही खेत में आधार खाद के रूप में मिला देना चाहिए। नाईट्रोजन की शेष आधी मात्रा 30 से 40 दिन की फसल अवस्था में छिटककर (आधार खाद) के रूप में देने से अच्छा लाभ प्राप्त होता है।

बीज की मात्राः- जीरे की बुआई के लिए 12 से 15 कि.ग्रा. प्रति हेक्टयर बीज की आवश्यकता होती है।

                                                           

बुआई का समयः- जीरे की बुआई 15 नवम्बर से दिसम्बर माह के प्रथम सप्ताह के मध्य कर देनी चाहिए। विलम्ब से बुआई करने पर फसल पर रोग एवं कीटों के प्रकोप की आशंका बढ़ जाती है।

बीजोपचारः- बीज को बुआई से पूर्व थायरम $ बाविस्टीन के 3 ग्राम सममिश्रण या ट्रसईकोडर्मा 6 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर बीज की बुआई करनी चाहिए। बीज के अंकुरण में 10 से 15 दिन का समय लगता है परन्तु यदि बीज को बुआई से पूर्व 46 घण्टे तक नम रखने या बीज को इंडोल 3 एसिटिक एसिड के 100 पीपीएम घोल (10 लीटर पानी प्रति ग्राम) की दर से उपचारित कर बीज की बुआई करने से से बीज का अंकुरण शीघ्र होता है। 

छिटककर बुआईः- बीज कह बुआई के लिए अेिधकाँश किसान इसी बिखेर कर बुआई करने की विधि का ही प्रयोग करते हैं। क्योंकि इस विधि से कम समय में अधिक क्षेत्र में बुआई की जा सकती है। परन्तु इस विधि से बुआई करने पर खेत में बीज का वितरण समान रूप से नही हो पाता है इसके साथ ही निराई-गुड़ाई आदि के साथ अन्य कृषि कार्य सही प्रकार से नही हो पाते हैं जिसके फलस्वरूप उपज एवं गुणवत्ता दोनों ही प्रभावित होते हैं।

पंक्तियों में बुआईः- जीरे का अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए जीरे के बीज की बुआई पंक्तियों में करना लाभप्रद रहता है। इसके लिए कतारों में 25 से 30 से.मी. पंक्ति से पंक्किी दूरी रखकर की जाती है। लौहे अथवा लकड़ी के हुक से पक्तियाँ बनाकर इन्हीं पंक्तियों में जीरे की बुआई कर दी जाती है और मिट्टी से हल्का ढंक दिया जाता है।

सिंचाईः- बुआई एकदम बाद पहली सिंचाई करते हैं। इसके साथ ही सिंचाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए की सिंचाई के पानी का वेग अधिक तेज नही हो अन्यथा जीरे का बीज पानी के साथ बहकर एक स्थान पर एकत्रित हो जाता है। इसे लगभग 8-10 दिन के बाद अीज के अंकुरण के समय दूसरी सिंचाई की जाती है क्योकि यह वह समय होता है जब बीज अंकुरित होकर बाहर निकलता है। इसे बाद भूमि की बनावट एवं मौसम के अनुरूप 15 से 25 दिनों के अंतराल पर 4 से 5 सिंचाई करना ही प्रयाप्त रहता है।

निराई-गुड़ाईः- भूमि में उचित वायु संचार के लिए कम से कम दो निराई-गुड़ाई करना आवश्यक होता है। पहील निराई-गुड़ाई बुआई के ल्रभग 30 दिन बाद जब पौधों की ऊँचाई 4 से 5 सेमी. की हो जाये तो कर देनी चाहिए। इस समय पोधे से पौधे की दमरी 15-20 सेमी. निश्चित् कर देनी चाहिए। वहीं दूरी निराई-गुड़ाई फसल की 60 दिन की अवस्था में करनी चाहिए।

कटाईः- जीरा की फसल लगभग 120 दिन से 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है। आमतौर पर किसान भाई जीरे की कटाई के स्थान पर इसके पोघों को उखाड़ लेते हैं जबकि फसल की कटाई हांसिये से करना अधिक उचित रहता है।

गहाई एवं औसाईः- सूखे हुए पौधों को पक्के फर्श अथवा तिरपाल के ऊपर पीटकर उनकी औसाई (उड़ावन) कर जीरा के दानों को पौधों से अलग कर लिया जाता है।

उपजः- जीरा की उपज भूमि की उर्वरा शक्ति, प्रजाति एवं फसल की देखीााल पर निर्भर करती है। औसत उपज 5-10 क्विंअल प्रति हेक्टेयर तक की प्राप्त हो जाती है।

भंड़ारणः- जीरे का भण्ड़ारण नमी रहित गोदामों किया जाना आवश्यक है इसके साथ ही दानों में नमी का स्तर 8.5-9.0 प्रतिशत से अधिक नही होना चाहिए। अधिक नमी का स्तर होने पर दानों की चमक कम हो जाती है। जीरे का संग्रह बोरियों अथवा कोठियों में ही किया जाना चाहिए क्योंकि खुले में भण्ड़ारण करने से इसमें उपस्थित वाष्पशील तेल का ह्रास शीघ्रता के साथ होता है।

लेखकः डॉ0 आर. एस. सेंगर, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेरठ में प्रोफेसर तथा कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर के कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग के विभाग अघ्ययक्ष हैं।

डिस्कलेमरः उपरोक्त विचार लेखक के अपने हैं।